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सार से अनुमानित किया जा सकता है। मेरुपर्वत से पूर्व में, महाविदेह क्ष ेत्र के अन्तर्गत 'सुकच्छ - विजय' नामक एक देश है। इसका राजा था'अनुसुन्दर' चक्रवर्ती । इसकी राजधानी थी - 'क्षेम पुर' । वृद्धावस्था के अन्तिम समय, वह अपना देश देखने की इच्छा से भ्रमण पर निकलता है । और किसी दिन 'शंखपुर' नगर के बाहर बने 'चित्तरम' नामक उद्यान के पास से गुजरता है ।
इस समय, चित्तरम उद्यान में बने 'मनोनन्दन' नामक चैत्य भवन में समन्तभद्राचार्य ठहरे हुए थे । प्रवर्तिनी - साध्वी 'महाभद्रा' उनके सामने बैठा थीं । 'सुललिता' नाम की राजकुमारी और 'पुण्डरीक' नाम का राजकुमार भी, इस सन्त-सभा में बैठे थे । अचानक ही रथों की गड़गड़ाहट और सेना का कोलाहल सुनकर सभी का ध्यान शोर की ओर आकृष्ट हो जाता है । उत्सुकता और जिज्ञासावश राजकुमारी, महाभद्रा से पूछती है - 'भगवती ! यह कैसा कोलाहल है ?" महाभद्रा ने आचार्यश्री की ओर देखकर कहा - 'मुझे नहीं मालूम ।' किंतु, आचार्यश्री ने इस अवसर को राजकुमार और राजकुमारी को प्रबोध देने के लिए उपयुक्त समझते हुए, महाभद्रा से कहा- 'अरे महाभद्रे ! तुम्हें नहीं मालूम है कि हम सब इस समय 'मनुजगति' नामक प्रदेश के महाविदेह बाजार में बैठे हैं । आज एक चोर, चोरी के माल सहित पकड़ लिया गया है । जिसे 'कर्म - परिणाम' महाराज ने अपनी प्रधान महारानी 'कालपरिणति' से परामर्श करके उसे मृत्युदण्ड की सजा सुनाई है । 'दुष्टाशय' आदि दण्डपाकि उसे पीटते हुए वध-स्थल की ओर ले जा रहे हैं । आचार्यश्री की बात सुनकर, सुललिता आश्चर्य में पड़ जाती है । और पुनः महाभद्रा से पूछती है - 'भगवती ! हम लोग तो शंखपुर के 'चित्तरम' उद्यान में बैठे हैं । यह 'मनुजगति' नगर
१ उपमितिभव प्रपंच कथा --- पीठबन्ध - श्लोक ६३ २ उपमितिभव प्रपंच कथा पृष्ठ- १३६
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का 'महाविदेह - बाजार' कैसे हो भया ? यहाँ के महाराज 'श्रीगर्भ' हैं न कि कर्मपरिणाम ।' आचार्य श्री क्या कह रहे हैं यह सब ?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया- 'धर्मशीले सुललिते ! तुम 'अगृहीत संकेता' हो । मेरी बात का अर्थ तुम नहीं समझ पायीं ।' सुललिता सोचती है- आचार्यश्री ने तो मेरा नाम भी बदल दिया । तभी, आचार्यश्री के कथन का आशय समझकर महाभद्रा निवेदन करती हैभगवन् । यह चोर, मृत्युदण्ड से मुक्त हो सकता है क्या ?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया- 'जब उसे तेरे दर्शन होंगे, और वह हमारे समक्ष उपस्थित होगा, उसकी मुक्ति हो जायेगी ।' महाभद्र ने पूछा - 'तो क्या मैं उसके सम्मुख जाऊँ ?' आचार्यश्री ने कहा - 'जाओ। इसमें दुविधा कहाँ है ?"
महाभद्रा उद्यान से निकलकर बाहर राजपथ पर आई और अनुसुन्दर चक्रवर्ती के निकट आने पर उससे बोली- 'भद्र ! सदागम की शरण स्वीकार करो ।'
साध्वी के दर्शन से अनुसुन्दर को 'स्वगोचर' (जाति / पूर्वजन्म - स्मरण) ज्ञान हो जाता है | 1 उसने आचार्यश्री द्वारा कही गई बात उनसे सुनी, और उनके साथ, आचार्यश्री के समक्ष आकर उपस्थित हो जाता है । वह आचार्यश्री को देखकर, सुख के अतिरेक से भर उठता है । 2 और अतिप्रसन्नता में मूच्छित होकर वहीं गिर पड़ता है । आचार्यश्री द्वारा प्रबोध देने पर वह सचेत होता है । राजकुमारी सुललिता, उससे चोरी के विषय में पूछती है । आचार्यश्री भी उसे अपना सारा वृत्तान्त सुनाने का आदेश देते हैं, तब अनुसुन्दर ने साध्वी के दर्शन से उत्पन्न पूर्वजन्म - स्मरण का सहारा लेकर अपनी भवप्रपञ्चकथा, तमाम उपमाओं के साथ सुनानी आरम्भ कर दी । ३
अनुसुन्दर की कथा सुनते-सुनते राजकुमार पुण्डरीक प्रतिबुद्ध हो जाता है । किन्तु, राजकुमारी ३ वही - पीठवन्ध, श्लोक ६६
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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