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________________ कठिनतम पक्ष को ही देखा, जिसके लिए यह स्वर्ण घट को तोड़ने से या स्वर्ण मुकुट बनाने से, सिद्धान्त विश्व में प्रसिद्ध है। एक ही वस्तु में उसे अपनी इच्छित वस्तु पाने में कोई फर्क नहीं उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य जैसे परस्पर विरोधी पड़ता था। इसलिए उसकी तटस्थता भी सहज धर्मों की सत्ता कैसे हो सकती है। यह है इस मानी आनेगी। सिद्धान्त की जटिलता।। इस उदाहरण का अभिप्राय यह है-एक ही __इसी जटिलता को लक्ष्य कर, बहुत से पदार्थ-"स्वर्ण" में, एक ही समय में, एक व्यक्ति विद्वानों ने इस सिद्धान्त की जमकर आलोचनाएं "विनाश" को होता हआ देख रहा है, तो दूसरा मा ना की हैं । किन्तु यही तथ्य, जब परस्पर विरोधी "उत्पत्ति” को, और तीसरा "ध्रौव्य" को। ये धर्मों की उपस्थिति, एक ही पदार्थ में मानने जैसी तीनों ही दशाएँ; परस्पर विरोधी हैं, फिर भी एक बात, सामान्य व्यक्तियों की समझ में नहीं आ ही समय में, एक ही पदार्थ में यह भी पायी सकती, तब, उन्होंने इसी सिद्धान्त की विवेचना, जाती हैं। इतने सरल शब्दों में कर डाली कि छोटे से छोटा इसी तरह, विश्व की प्रत्येक वस्तु में, एक बालक तक बिना किसी श्रम के आसानी से समझ ही समय में, एक साथ तीनों स्थितियाँ रहती हैं। ले। इसी तथ्य को जैनदार्शनिकों ने वस्तु मात्र की जैसे, एक स्वर्णकार सोने के घड़े को तोड़कर, "त्रिगणात्मकता" कहा है, और यह त्रिगुणात्मकता सोने का मुकुट बना रहा है। इसी समय उसके वस्तुमात्र का सहज-स्वभाव है। इसी तरह पास तीन ग्राहक आ जाते हैं । इनमें से एक ग्राहक वस्तु मात्र में, भिन्न अपेक्षाओं से अनेकों परस्पर सोने का घड़ा खरीदना चाहता था, तो दूसरा सोने विरोधी धर्म, एक समय में एक साथ बने रहते का मुकुट खरीदने की इच्छा लेकर आया था, जब हैं। कि तीसरे को स्वर्ण की आवश्यकता थी। उस उक्त उदाहरण स्याद्वाद की सहजता, सरलता M) स्वर्णकार की क्रिया प्रवृत्ति को देखकर पहले ग्राहक का द्योतक है । वास्तविकता यह है कि “स्याद्वाद" को कष्ट का अनुभव हुआ, तो दूसरे को प्रसन्नता उक्त उदाहरण से भी अधिक सरल है। इतना भी हुई, जबकि तीसरे ग्राहक के मन में कष्ट और सरल कि-रास्ता चलते समय कोई बालक आप प्रसन्नता जसा कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। वह उस से स्यादाद के बारे में प्रश्न पछ ले तो भी आप HD स्वर्णकार को तटस्थभाव से देखता रहा । ऐसा क्यों आराम से समझा सकें। संयोगवश, एक जैनाचार्य महोदय के साथ ऐसी ही स्थिति, आ भी गई । इसका कारण यह है कि प्रथम ग्राहक स्वर्ण- विहार-यात्रा में सड़क मार्ग से जाते हुए, उन्हें घट खरीदना चाहता था, परन्तु स्वर्णकार को सोने किसी बालक ने पूछा-"भगवन् ! आपका स्याद्वाद का घड़ा तोड़ते हुए देखकर उसे कष्ट का अनुभव क्या है ?" होना सहज ही है। दूसरा ग्राहक उसी स्वर्णकार आचार्य ने अपने एक हाथ की 'कनिष्ठा' का को अपनी मनचाही वस्तु-स्वर्णमुकुट बनाते हुए और "अनामिका"। उंगलियों को ऊपर उठाकर, देखकर प्रसन्नता अनुभव करे, यह भी एकदम सहज उस बालक से पूछा- "बतलाओ वत्स ! इन उँगई ही है । तीसरा ग्राहक, सोना ही चाहता था अतः लियों में कौन उंगली बड़ी है ?" हुआ? १ आप्तमीमांसा ५९/६० ५५१ KC कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ C . Jant Education Internationat Por Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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