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बालक ने उत्तर दिया-"अनामिका"। "सामान्य' का ही गुण ग्रहण करता है, इसलिए
अब आचार्य ने कनिष्ठा के स्थान पर 'मध्यमा' इसके अन्तर्गत वस्तुतः केवल नैगम का ही समावेश को “अनामिका" के साथ ऊपर उठाया, और मानना उचित होगा। पर्यायाथिक नय, भेद विवबालक से पुनः पूछा- “अब बतलाओ, इन दोनों क्षाओं को, और "विशेष" को भी ग्रहण करता है। उंगलियों में कौन उँगली छोटी है ?"
अतः शेष छः ही नयों को, इसके अन्तर्भूत माना बालक ने उत्तर दिया-'अनामिका"। जाता है । इन सात नयों के अन्य उपभेद बहुत
यह उत्तर सुनकर आचार्य ने उसे समझाया से हैं। जिस तरह तुमने एक ही उँगली को "बड़ा" और उनका सामान्य विवेचन भी यहाँ विस्तार का "छोटा" कहा, उसी तरह यह "स्याद्वाद" भी एक कारण बन सकता है। किन्तु इन्हीं सातों नयों को ही पदार्थ में स्थित, परस्पर-विरोधी धर्मों की बात एक दूसरी अपेक्षा से "निश्चयनय" और "व्यवहाबतलाता है।"
रनय" के भेदों, उपभेदों के रूप में विभाजित और
व्यवहृत किया जाता है। इसलिए इनके सम्बन्ध में ___ आचार्य की बात सुनकर बालक हँसता हुआ चला गया। यही है इस सिद्धान्त की सहजता
भी, कुछ कहना उचित ही होगा। सरलता, जो किसी भी विद्वान का ध्यान अपनी
"स्याद्वाद" सिद्धान्त का व्यावहारिक उपयोग और वरवश आकृष्ट कर लेती है।
करते समय, वस्तुतः नयों के "निश्चय" और
"व्यवहार" भेदों की ही विशेष अपेक्षा प्रतीत होती ___ "स्यादाद" सिद्धान्त में नयों की बहुमुखी विवक्षा हमेशा ही रहती है। क्योंकि जिस किसी
" है । क्योंकि, सप्तभंगी के सन्दर्भ में जो भी । भी पदार्थ का, जो अर्थस्वरूप, स्याद्वाद द्वारा अलग
प्रासंगिक विशिष्ट अपेक्षाएं जागृत होती हैं, उन करके विवक्षित किया जाता है, उसी अर्थ स्वरूप का मुख्य सम्बन्ध "निश्चय" व व्यवहार से ही की अभिव्यन्जना करने वाले "नय" होते हैं।
5 जुड़ता है। नीयते-साध्यते गम्यते मानोऽर्थः येन"--इस व्यू- क्योंकि, प्रत्येक द्रव्य व्यवहार में हमें जैसा 4 त्पत्ति से "नय" का उत्तम उक्त स्वरूप ही स्पष्ट दिखलाई पड़ता है, वस्तुतः वह वैसा होता नहीं। १ होता है।
उसके और भी अनेकों रूप होते हैं, हो सकते हैं, ये "नय" सात हैं। इन्हीं पर “स्याद्वाद" यह बतलाने वाला नय है-"निश्चयनय" । इसी का या सप्तभंगों का आधार स्थित है। ये सात तथ्य को आचार्यों ने इस पंक्ति में व्यक्त किया हैनय है :-नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसत्र, शब्द, "तत्वाथे निश्चयो वक्ति व्यवहारश्च जनोदितम् । समभिरूढ़ और एवम्भूत ।
इस कथन को निम्नलिखितः उदाहरण से स्पष्ट उक्त सातों नयों को मूलतः दो विभागों में समझा जा सकता है। विभाजित किया गया है-'द्रव्याथिक" और एक बार भगवान् महावीर से पूछ गया--- "पर्यायाथिक"। कुछ आचार्यों ने “नगम" और "भगवन् ! फाणित प्रवाही गुड़ में कितने वर्णरस"संग्रह" को द्रव्याथिक के अन्तर्गत माना है जबकि गन्ध होते हैं ? कुछ आचार्य मात्र “नगम" को ही "द्रव्यार्थिक" भगवान ने उत्तर दिया-'व्यवहार में तो के अन्तर्गत मानते हैं। द्रव्यार्थिक नय, मात्र मात्र 'मधुर' रस ही उसमें में है, यह कहा
१ आप्तपरीक्षा १०८ २ द्रव्यानुयोगतर्कणा ५५२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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