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परिशिष्ट
जैनाचार : एक विवेचन
-राजोन्द्र मुनि शास्त्री , एम० ए०
सुखकामी मनुष्य और सुख का रूप लिए ही होती है, प्रयत्न भी इसी दिशा में किये धर्माचार का मूल मन्तब्य यथार्थ सुख की जाते हैं । यह बात अन्य है कि वे प्रयत्न उत्तमसुख प्राप्ति है। यहाँ यह अपेक्षित है कि सच्चे सुख के के पक्ष में होते हैं अथवा नहीं और वे प्रयत्न समुस्वरूप को पहचाना जाय और दुःख के साथ उस चित होते हैं अथवा नहीं। यह सुख की लालसा की आपेक्षिक स्थिति को भी समझा जाय । जैन दुःख की प्रतिक्रिया है। दुःख कदाचित् जागतिक साहित्य में इस विषय का विषद विवेचन उपलब्ध जीवन का एक दृढ़ और कटु सत्य है । दुःख की होता है। दुःख के कारणों की खोज की गई है परिधि से कोई बच नहीं पाया है । लोकिक दृष्टि और उनको निर्मूल करने के उपाय भी सूझाये से 'अभाव' दुःख का कारण है । अभाव की पूर्ति से गये हैं । दुःख के समाप्त हो जाने की स्थिति, सुखा- हो सुख का आगमन भी मान लिया जाता है। नुभव की प्राथमिक आवश्यकता है। जैन मान्य- अन्नाभाव के कारण क्षधा का दुःख है और अन्न. तायें दुःख के कारण रूप में 'कर्मबन्धन' को स्वी- प्राप्ति पर सुखानुभव होने लगता है। किंतु दुःखित । कारती हैं। इस बन्धन के क्षीण हो जाने पर ही
तो अभावग्रस्त पाये ही जाते हैं; सम्पन्न जन भी वास्तविक और उत्तम सुख उपलब्ध होता है । इस !
से किसी न किसी दुःख के शिकार रहते हैं। धनाविचार के समर्थन में निम्न उक्ति उल्लेखनीय है- धिक्य यदि भौतिक सुख की उपलब्धि कराता देशयामि समीचीनं धर्म-कर्मनिवर्हणम् ।
है तो सन्तानाभाव अथवा अन्य किसी कारण से
मानसिक संताप बना रहता है। व्याधि भी दुःख संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।।
का कारण हो सकती है, व्यावसायिक ऊँच-नीच से अर्थात-"मैं कर्मबन्ध का नाश करने वाले
भी चिन्ता और मानसिक क्लेश संभव है। सार उस सत्यधर्म का कथन करता है जो प्राणियों को ,
यह कि सामान्यतः दुःख इस जागतिक जीवन का संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तमसुख में धरता एक अनिवार्य अंग है और मनुष्य का सुखकामी
होना भी एक शाश्वत सत्य है। स्पष्ट है कि संसार में दुःख हैं। प्राणियों के प्रश्न यह है कि इस दुःख से छुटकारा पाने अपने कर्म ही इन सांसारिक दुःखों के मूल कारण और सुख प्राप्त करने के लिए कारगर उपाय क्या हैं और धर्म उन्हें दुःख-मुक्त कर उत्तम सुख की है ? भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम और प्राप्ति करा सकता है। कोन सचेतन प्राणी सुख मोक्ष-ये ४ साधन सुखार्थ सुझाये गये हैं। मोक्ष का परित्याग कर स्वेच्छा से दुःख का वरण करने पारलौकिक सुख का साधन है। इहलोक के सुखों को तत्पर हो सकता है ? सभी की कामना सुख के के लिये प्रथम ३ साधनों का विधान है। इन तीन
१ 'रत्नकरण्डश्रावकाचार'-श्री समन्तभद्र स्वामी
कुसूम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
63-60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ oes
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