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जाती है, जैनधर्म में श्रमण शब्द का व्यापक व्यव- अपने समाज में अपने निम्नोच्च एवं कलुषित भावों हार तथा श्रमणों के आचार-विचार के कारण ही के आधार पर कुछ इस प्रकार की प्रवृत्ति को प्रश्रय जैनधर्म के सांस्कृतिक स्वरूप ज्ञापन करने की दे रखा है जिसके कारण उसके आचरण एवं व्यवदृष्टि से लोक व्यवहार में उसका व्यवहार श्रमण हार से दूसरों में निर्भयता उत्पन्न नहीं हो पाती। संस्कृति के नाम से किया जाने लगा । निर्ग्रन्थ जैन यही कारण है कि सभी प्राणी अपने सजातीय साधु का आचरण करने वालों के लिए प्राचीनकाल अथवा विजातीय प्राणियों से सदा भयभीत एवं में श्रमण शब्द इतना अधिक प्रचलित और प्रसिद्धि शंकाशील बने रहते हैं। समाज की यह स्थिति हिंसाप्राप्त हुआ कि उसके आधार पर तत्सम्बन्धी पूर्ण वृत्ति या आचरण की परिचायक है । प्राणियों सांस्कृतिक परम्परा एवं विचारधारा को श्रमण को इस प्रकार की वृत्ति से मुक्त करना तथा उनमें | नाम से जाना जाने लगा।
समत्वभाव उत्पन्न करना ही श्रमण संस्कृति का श्रमण संस्कृति का स्वरूप एवं व्यापकता मूल है । इसका सैद्धान्तिक, वैचारिक एवं व्यवहा- 710) श्रमण संस्कृति का स्वरूप सदैव व्यापक रहा है,
रिक रूप ही श्रमण संस्कृति का परिचायक तथा पारस्परिक भेदभाव एवं विरोध की भावना ने इस
उसकी व्यापकता का द्योतक है। संस्कृति में कभी प्रश्रय नहीं पाया । यही कारण है।
मानव-जीवन के प्रत्येक पक्ष को समुज्ज्वल बनाने कि प्राणि मात्र में समता भाव का आद
वाली श्रमण संस्कृति वस्तुतः भारतीय संस्कृति करने का श्रेय मात्र श्रमण संस्कृति को ही लब्ध हो
की वह प्रमुख धारा है जिसे अतीत और वर्तमान सका है। समता के आदर्श का मुख्य आधार है सत्य,
में पीड़ित एवं कराहती हुई मानवता को आश्रय अहिसा, अपरिग्रह, अनेकान्त (व्यापक दृष्टिकोण) प्रदान कर हिताहित विवेक द्वारा आत्म-कल्याण तथा पारस्परिक स्नेह, प्रेम और सौहार्द का भाव। करने तथा भूले व भटके हुए प्राणियों को सन्मार्ग मनुष्य में इन भावों का प्रत्यूदगमन उसकी उस में लाकर जीवन का अन्तिम लक्ष्य बतलाने का मानसिक निर्मल वृत्ति का परिचायक है जो क्रमशः
श्रेय प्राप्त है। श्रम-त्याग-तपस्या-शम-इन्द्रिय द्वेष, ईर्ष्या और व क्रोधरहित भाव के जन्म का
विषय-कषायनिग्रह-समताभाव तथा मन-आत्मा हेतु है, यही भाव मानव सुलभ वृत्ति के प्रतिपादक
की निर्मलता, पवित्रता तथा सांसारिक विषयों के होते हैं, जो जीवन की वैषम्यपूर्ण स्थिति में समत्व प्रति अनासक्ति भाव का संयुक्त रूप ही श्रमण
) वृत्ति की प्रेरणा प्रदान करते हैं। यही समत्ववत्ति संस्कृति का वह व्यापक स्वरूप है जो 'सर्वजनहिताय' मानव-जीवन में आने वाली विपत्तियों और जीवन
की पावन भावना से प यापन की दुरूहता का समूलोच्छेन करने में सहायक
आध्यात्मिक अथवा आत्मवादी होने के कारण होती है।
श्रमण संस्कृति ने भारतीय जन-जीवन को अमूल्य प्राणियों में पारस्परिक भय से समत्पन्न मनः- देन दी है। निवृत्तिपरक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए स्थिति ही अनेक विषमभावों की जन्मदात्री है. जब तथा इस परिभ्रमणशील संसार से आत्मा की मूक्ति तक जीवन में भयपूर्ण स्थिति का पूर्णतः उच्छेद के लिए जितना जोर श्रमण संस्कृति ने दिया है, नहीं हो जाता तब तक समत्ववृत्ति का भाव मानव उतना किसी अन्य संस्कृति ने नहीं दिया। श्रमण | मानस में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। जीवन में स्वभावतः मुमुक्षु होता है और उसके लिए अपनी , निर्भयता, ऋजुता और समता भाव की प्रेरणा आत्मा की मुक्ति प्रधान लक्ष्य है । इसीलिए श्रमण केवल अहिंसा से ही प्राप्त होती है। यह अहिंसा ही संस्कृति में आत्मतत्व व मोक्षतत्व मुख्य विचारणीय श्रमण संस्कृति का मूल है, वर्तमान में प्राणियों ने
(शेषांश पृष्ठ २८६ पर देखें) चतुथं खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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