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जैसे कि सहजतया कर्म करने में आत्मा स्वतन्त्र है, वह चाहे जैसे भाग्य का निर्माण कर सकती है, इस प्रकार आत्मा ही स्वयं के भाग्य का निर्माता है न कि ईश्वर के हाथ को कठपुतली । कर्मों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध बनकर मुक्त हो सकती है । किन्तु कभी-कभी पूर्वजनित कर्म और बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है कि वह जैसा चाहे वैसा कभी भी नहीं कर सकती है, जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर बढ़ना चाहती है, किन्तु कर्मोदय की बलवत्ता से उस मार्ग पर चल नहीं पाती हैं, फिसल जाती है, यह है आत्मा का कर्तृत्व काल में स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य ।
कर्म करने के बाद आत्मा पराधीन - कर्माधीन ही बन जाती है, ऐसा नहीं । उस स्थिति में भी आत्मा का स्वातन्त्र्य सुरक्षित है। वह चाहे तो अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकती है, स्थिति और रस का ह्रास कर सकती है। विपाक (फलो
का अनुदय कर सकती है, फलोदय को अन्य रूप में परिवर्तित कर सकती है। इसमें आत्मा का स्वातन्त्र्य मुखर है । परतन्त्रता इस दृष्टि से है कि जिन कर्मों को ग्रहण किया है, उन्हें बिना भोगे मुक्ति नहीं होती । भले ही सुदीर्घ काल तक भोगे
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जाने वाले कर्म थोड़े समय के लिए भोगे जाय किंतु सबको भोगना ही पड़ता है ।
जैनदर्शन की कर्म के बन्ध, उदय की तरह कर्म क्षय की प्रक्रिया भी सयुक्तिक है । स्थिति के परिपाक होने पर कर्म उदयकाल में अपना वेदन कराने के बाद झड़ जाते हैं । यह तो कर्मों का सहज क्षय है। इसमें कर्मों की परम्परा का प्रवाह नष्ट नहीं होता है । पूर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं लेकिन साथ ही नवीन कर्मों का बन्ध चालू रहता है । इस श्रृंखला को तोड़ने के लिए तप, त्याग, संयम आदि प्रयत्नों की आवश्यकता है। संयम, संवर से नये आते कर्मबन्ध बन्द होगा, तप द्वारा जो कर्म रहे हैं, उनका क्षय होगा । इस प्रकार पुरुषार्थ से आत्मा कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकती है। कर्म तत्व के सम्बन्ध में जैन दर्शन की विशेषताएँ हैं कि कर्म के साथ आत्मा का वन्ध कैसे है ? किन कारणों से होता है ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति उत्पन्न होती है, आत्मा के साथ कितने समय तक कर्म लगे रहते हैं, कब फल देते हैं ? इसका विस्तार यहाँ नहीं करते हुए विराम लेती हूँ, क्योंकि लेख की मर्यादा है । कर्म सिद्धान्त सागर-सा विशाल है उसे गागर में भरना बहुत ही कठिन है । इस प्रकार जैन दर्शन में वैज्ञानिक रूप से कर्म सिद्धान्त का निरूपण किया गया है ।
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जगत में ऐसा कोई बलवान नहीं है जो उगते हुए सूर्य को रोक सकता हो, वैसे ही लोक में ऐसा कोई नहीं जो उदय में आये हुए कर्म को रोक सकता हो ।
- भग० आ० १७४०
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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