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( एवं निष्पक्षता में बाधा पड़ती है। स्वयं जीव के यदि ईश्वर को फलदाता माना जाये तो जहाँ
आत्मस्वातन्त्र्य की हानि होती है। यदि जीव को एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का घात करता है, वहाँ सिर्फ वर्तमान क्षणस्थायी माना जाय तो कर्म- घातक को दोष का भागी नहीं होना चाहिए, विपाक की उपपत्ति नहीं बन सकती क्योंकि जिस क्योंकि उस मनुष्य के द्वारा ईश्वर मरने वाले को क्षण वाली आत्मा ने कर्म किया है उसी क्षण वाली मृत्यु का दण्ड दिलाता है। जैसे राजा जिन पुरुषों आत्मा को यह कर्म का फल मिल रहा है यह नहीं के द्वारा अपराधियों को दण्ड दिलाता है, वे पुरुष हो सकेगा क्योंकि वे क्षणिक मानते हैं। जड़ पदार्थ अपराधी नहीं कहे जाते क्योंकि वे राजा की आज्ञा चेतन के अभाव में फल भोग नहीं कर सकते हैं। का पालन करते हैं। यह कार्य तो कृतकर्म भोगी पुनर्जन्मवान स्थायी- इसी तरह किसी का घात करने वाला घातक तत्व ही करता है। इस प्रकार से त्रिकालस्थायी भी जिसका घात करता है, उसके पूर्वकृत कर्मों का स्वतन्त्र जीवतत्व का अस्तित्व और उसे अपने ही फल भगवाता है. क्योंकि ईश्वर ने उसके पर्वकृत सुख-दुःख का कर्ता, भोक्ता बताना ही कर्म-सिद्धान्त कर्मों की यही सजा नियत की होगी, तभी तो का प्रयोजन है।
उसका वध किया गया है। यदि कहा जाय कि जैनदर्शन ईश्वर को सष्टि का नियंता नहीं मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है अतः घातक का मानता है, अतः कर्मफल देने में भी उसका हाथ कार्य ईश्वर-प्रेरित नहीं है किन्तु उसकी स्वतन्त्र । नहीं है । कर्म अपना फल स्वयं देते हैं, उनके लिये इच्छा का परिणाम है तो कहना होगा कि संसार अन्य न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे दशा में कोई भी प्राणी वस्तुतः स्वतन्त्र नहीं, सभी
शराब नशा पैदा करती है और दूध ताकत देता है अपने-अपने कर्मों से बँधे हए हैं। पर जो मनुष्य शराब पीता है, उसे बेहोशी होती है कर्मणा बध्यते जन्तु (महाभारत) और कर्म की
और जो दूध पीता है, उसके शरीर में पुष्टता आती अनादि परम्परा है । ऐसी स्थिति में 'बुद्धिकर्मानुहै। शराब या दूध पीने के बाद यह आवश्यकता सारिणी' अर्थात् कर्म के अनुसार प्राणी की बुद्धि नहीं रहती है कि उसका फल देने के लिए दूसरी होती है, के न्यायानुसार किसी भी काम को करने नियामक शक्ति हो । इसी प्रकार जीव के प्रत्येक या न करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। इस कायिक, वाचिक, मानसिक परिस्पन्द से जिन कर्म स्थिति में यह कहा जाय कि कोई भी व्यक्ति मुक्ति पुद्गलों का बन्ध होता है, उन कर्म परमाणुओं में प्राप्त नहीं कर सकेगा क्योंकि जीव कर्म से बंधा भी शराब और दूध की तरह शुभ या अशुभ करने हुआ है और कर्म के अनुसार जीव की बुद्धि होती
की शक्ति रहती है। जो चैतन्य के सम्बन्ध से है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि कर्म ११ व्यक्त होकर उस पर अपना प्रभाव दिखलाती है अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं । अतः अच्छे 1 और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम कर्म का अनुसरण करने वाली बुद्धि मनुष्य को
करता है जो उसे सुखदायक और दुःखदायक होते सन्मार्ग पर ले जाती है और उससे मुक्ति लाभ हो हैं । यदि कर्म करते समय जीव के भाव अच्छे होते सकता है, और बुरे कर्म का अनुसरण करने वाली हैं तो बंधने वाले कर्म परमाणुओं पर अच्छा प्रभाव बुद्धि कुमार्ग पर ले जाती है जिससे कर्मबन्ध होता पड़ता है और कालान्तर में उससे अच्छा फल है। ऐसी दशा में बुद्धि के कर्मानुसारिणी होने से मिलता है तथा यदि भाव बुरे हों तो बुरा असर मुक्ति लाभ में कोई बाधा नहीं आती है, आत्मा में पड़ता है और कालान्तर में फल भी बुरा ही कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों अवसरों मिलता है।
पर स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य फलित होते हैं।
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। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन (( 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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