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और विभिन्न प्रकार के विभाव भावों का धारण करने से, नये-नये कर्मों से बंधता रहता है । इन्हीं कर्मों के कारण पुनः एक देह से दूसरा देह प्राप्त करता रहता है ।
प्रदेश प्रमाणता
प्रत्येक समय में हो रही षड्गुण हानि वृद्धि से अनन्त - गुरुलघु गुणों की उत्पत्ति होती रहती है । ये गुण, आत्मा के अगुरुलघुस्वभाव से अविनाभावी होते हैं और आत्मा की स्थिति के अतिसूक्ष्म कारण बनते हैं। जितने भी जीव हैं, वे सभी, इन गुणों से परिणत होते हैं । कोई जीव ऐसा भी नहीं है, जिसमें ये गुण न हों। सभी जीव लोक प्रमाणअसंख्येय प्रदेशी हैं । इनमें से कुछ जीव, किसी प्रकार, दण्ड कपाट आदि अवस्थाओं में घनाकार रूप समस्त लोक प्रमाणता को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त जाति कर्मों के उदय से लोकप्रमाण विस्तार को प्राप्त करते हैं । इसी कारण, समुद्घात की अपेक्षा से, कुछ जीवों को लोकप्रमाण माना गया है । समुद्घात की अभाव दशा में जीवों को अवलोक प्रमाण ही माना गया है । नित्यानित्यता
पूर्वलिखित लक्षणों से युक्त जीव को सहज शुद्ध चैतन्य पारिणामिक भावों से अनादि-अनन्तता होती है, और अपने स्वभाव से तीनों ही कालों में टङ्को - त्कीर्ण विनाशी होकर औदयिक एवं क्षायोपशमिक भावों से सादि- सान्तता भी होती है । आत्मा का स्वभाव कर्मजनित है, इस दृष्टि से, कर्मजनित ओदयिक आदि भाव भी उसके हैं । कर्म का स्वभाव है बंधना और निर्जरित होना । अतः कर्म में भी सादि-सान्तता है । इसी अपेक्षा से जीव में भी सादि- सान्तता बन जाती है ।
यही जीव, क्षायिकभाव की अपेक्षा से सादिअनन्त भी होता है । क्षायिकभाव, कर्मों के क्षय उत्पन्न होता है । अतः जीव में सादिता के साथ अनन्तकालिक स्थिति बन जाने से अनन्तता भी आ
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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जाती है । सत्ता - स्वरूप को दृष्टि से तो जीव राशि में अनन्तता रहती ही है ।
'भव्य' और 'अभव्य' भेद से जीव के दो प्रकार हैं | अभव्य जीव अनन्त हैं । इनसे भी अनन्तगुणा अधिक भव्य जीव हैं । अतः भव्य जीव भी अनन्त हैं । अनादि कर्म सम्बन्ध के कारण, आत्मा अशुद्ध भाव से परिणमन करता है । इससे वह 'सादिअन्त' और 'सादि-अनन्त' भी होता है। कीचड़ ' मिला जल अशुद्ध होता है । कीचड़ के 'सम्मिश्रण' और 'अभाव' की स्थितियों के आधार पर उसे क्रमशः 'अशुद्ध' और 'शुद्ध' - जल कहा जाता है । इसी प्रकार, आत्मा में भी कर्म सम्बन्ध की 'संयोग' और 'विप्रयोग' स्थितियों के अनुसार 'सादिअन्तता' और 'सादि - अनन्तता' बन जाती है 129
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इन पूर्वोक्त भाव परिणतियों वाला जीव, जब मनुष्य आदि पर्याय को प्राप्त करता है, तब, उत्पाद - व्यय की अपेक्षा से उसमें 'विनाशात्मकता' जाती है । पर्याय क्योंकि, मनुष्य आदि 'विनाशी' हैं । और, चूँकि देव आदि पर्यायों को उसने प्राप्त नहीं किया है, इससे देव आदि पर्यायें उसके लिए 'उत्पाद' रूप बनी रहती है । इस कारण उसमें 'उत्पादकता' भी बनी रहती है। इस उत्पाद व्ययात्मकता अथवा विनाशउत्पादकता के कारण भी जीव में 'अनित्यता' रहती है । तथापि वह, मनुष्य देव आदि पर्यायों में 'जीव' रूप से सदा विद्यमान रहता है । इससे उसकी 'नित्यता' भी सिद्ध होती है । जैसे जल, तरंग- कल्लोल आदि की अपेक्षा से उत्पाद व्ययात्मक स्वरूप वाला, अतएव 'अनित्य' कहा जाता है । परन्तु जलरूप द्रव्यात्मकता के कारण 'नित्य' भी सिद्ध होता है। ठीक इसी प्रकार, जीव भी द्रव्य दृष्टि से 'नित्य' है। जबकि गुण-पर्यायों की दृष्टि से 'अनित्य' ही है । जीव/आत्मा की नित्या - नित्यता का यही स्वरूप है 130 द्विविधरूपता
द्रव्य की दो शक्तियाँ हैं—क्रियावती शक्ति
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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