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और भाववती शक्ति । 'जीव' और 'पुद्गल' में ये दोनों की शक्तियाँ रहती हैं । किन्तु शेष चारों पदार्थों में केवल भाववती शक्ति ही होती है । इन्हीं शक्तियों से द्रव्यों में परिणमन होता है । भाववती शक्ति से 'शुद्ध- परिणाम' और क्रियावती शक्ति से 'अशुद्ध परिणाम' होता है । अतः भाववती शक्ति के निमित्त से उत्पन्न परिणाम को 'शुद्धपर्याय' कहा जाता है। जबकि क्रियावती शक्ति के निमित्त से उत्पन्न परिणाम को 'अशुद्धपर्याय' कहा जाता है । इसी आधार पर 'जीव-पुद्गल के शुद्ध - अशुद्ध- परिणाम होते हैं । किन्तु शेष चार पदार्थों में केवल भाववती शक्ति ही विद्यमान रहती है । जिससे तज्जन्य-परिणाम | केवल शुद्ध पर्याय रूप में ही होता है ।
जीव में जो स्व- प्रदेश मात्र परिणमन होता है 3 वह उसकी 'शुद्ध पर्याय' होती है । कर्म सम्बन्ध के | कारण जीव को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में | रूपान्तरित करने वाले परिणमन को उसका अशुद्ध पर्याय कहा जाता है । इन्हीं दो परिणमनों के आधार पर, जीव के 'संसारी' और 'मुक्त' दो रूप बन जाते हैं । 31 कर्मसहित जीवों को 'संसारी' और कर्मरहित जीवों को 'मुक्त' कहा जाता है । संसारित्व
अनन्त जीव-समुदाय में अनन्तानन्त - जीव ऐसे हैं, जो अनादिकाल से मिथ्यात्व और कषाय के संयोग के कारण संसारी हैं । देहधारियों को नारकी - तिर्यञ्च मनुष्य गतियों का जो भी शरीर प्राप्त होता है, और उस शरीर के आकार रूप आत्मप्रदेशों में जो परिणमन होता है, उसे 'अशुद्ध आत्म पर्याय' या 'अशुद्ध आत्मद्रव्य' कहा जाता है । इसी को 'अशुद्ध-जीव' या 'संसारी' नामों से | भी व्यवहृत किया जाता है । क्योंकि आत्मा, कर्म - संयोग के निमित्त से ही देशान्तर, अवस्थान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त करता है । 32
आत्मा का जो 'अतीन्द्रिय' - 'अमूर्तिक' स्वभाव है, उसके अनुभव से उत्पन्न सुखामृत - रस-भाब को
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प्राप्त न कर सकने वाले कुछ ही जीव, इन्द्रिय सुख की अभिलाषा से, और इस सुख का ज्ञान हो जाने पर इस सुख में आसक्ति से एकेन्द्रिय जीवों का घात करते हैं । इस घात से उपार्जित त्रस - स्थावर नाम कर्म से उदय से संसारी जीवों के दो भेद'त्रस' एवं 'स्थावर' हो जाते हैं । अर्थात् - एकेन्द्रिय नामकर्म के उदय से पृथिवी - जल-तेज- वायु और वनस्पति जीव, एकमात्र स्पर्शन-इन्द्रिय वाली 'स्थावर' संज्ञा को प्राप्त करते हैं । जबकि दो-तीनचार-पाँच इन्द्रियों के धारक जीव' 'स' नामकर्म के उदय के कारण, 'स' संज्ञा को प्राप्त करते हैं । संसारी जीवों की यही द्विविधता है । सिद्धत्व
जो जीव, ज्ञानावरण-आदि अष्टविध कर्मों से रहित, अतएव जन्म-मरण से रहित, सम्यक्त्व - आदि अष्टविधगुणों के धारक, अतएव संसार में पुनः वापिस न आ सकने वाले स्वभाव-युक्त, अमूर्तिक, अतएव अभेद्य अच्छेद्य चेतनद्रव्य की शुद्धपर्याय युक्त होते हैं, उन्हें 'सिद्ध', मुक्तजीव' या 'विमल - आत्मा' कहा जाता है | 33
ये सिद्ध-जीव, ऊर्ध्वगामी स्वभाव से लोक के अग्रभाग में स्थित रहते हैं। क्योंकि जीव, जहाँकहीं पर कर्मों से विप्रयुक्त होता है, तब वह वहीं पर ठहरा नहीं रह जाता, अपितु, पूर्व-प्रयोग, असङ्गता, बन्ध-विच्छेद तथा गति-परिमाण रूप चार कारणों से, अविद्ध कुलालचक्रवत्, ब्यपगतलेपअलम्बुवत्, एरण्डबीजवत् और अग्निशिखावत्, ऊर्ध्वगमन कर जाता है तथा लोकाग्र में पहुँचकर ठहर जाता है । चूँकि, गति में सहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य की सत्ता, लोक से आगे नहीं है । अतः मुक्त - जीव भी लोक से ऊपर नहीं जा पाता । यद्यपि संसार के कारणभूत द्रव्य-प्राण, सिद्ध-मुक्त जीवों में नहीं पाये जाते, तथापि, भावप्राणों के विद्यमान रहने से कथञ्चित् प्राणसत्ता रहती ही है । इसी दृष्टि से इन्हें 'अमूर्तिक', 'शरीररहित' और 'अवाग्गोचर' आदि शब्दों से व्यवहृत किया जाता है ।
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न अभिनन्दन ग्रन्थ
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