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________________ । परिमित, सीमित हो जाती है। संसार के पुद्गलों धर्मशास्त्रों में निरूपित विधि के अनुरूप गुरुजन को केवल एक बार किसी न किसी रूप में भोग का विनय, शुश्रूषा-सेवा, परिचर्या करे, उनसे तत्त्व सके, मात्र इतनी अवधि बाकी रह जाती है, ज्ञान सुनने की उत्कण्ठा रखे तथा अपनी क्षमता के उसे चरम पुद्गल परावर्त या चरमावर्त कहा अनुरूप शास्त्रोक्त विधि-निषेध का पालन करे । जाता है। अर्थात् शास्त्र-विहित का आचरण करे, शास्त्रजैन-दर्शन में प्रत्येक कर्म की जघन्य कम से निषिद्ध का आचरण न करे। कम तथा उत्कृष्ट अधिक से अधिक दो प्रकार की पावं न तिव्वभावा कूणइ न बह मन्नई भवं घोरं । आवधिक स्थितियां मानी गयी हैं। आठ प्रकार के उचियदिठई च सेवइ सव्वथ वि अपुणबंधो त्ति ।१३। कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। मोहनीय की अपनर्बन्धक तीव्र भाव-उत्कट कलुषित भावनाउत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ सागरोपम है, पर पूर्वक पाप-कर्म नहीं करता, घोर-भीषण, भयावह जिसका मुख्य कारण जीव का तीव्र कषाययुक्त संसार को बहुत नहीं मानता। उसमें आसक्त-रचाहोना है। पचा नहीं रहता। लौकिक, सामाजिक, पारिवारिक, जब जीव चरम-पुद्गल-परावर्त-स्थिति में होता वैयक्तिक, धार्मिक-सभी कार्यों में उचित स्थितिहै, उस समय कषाय बहुत ही मन्द रहते हैं । फलतः न्यायपूर्ण मर्यादा का पालन करता है। वह फिर सत्तर कोडाकोड़ सागरोपम स्थिति के मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं करता। उसे अपुन पढमस्स लोकधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं ।। बन्धक कहा जाता है। अपुनर्बन्धकता की स्थिति गुरुदेवातिहिपूयाइ दीणदाणाइ अहिगिच्च ॥२५॥ पा लेने के पश्चात् जीवन सन्मार्गाभिमुख हो जाता प्रथम भूमिका का साधक दूसरों को पीड़ा न है। उसकी मोहरागमयी कर्म-ग्रन्थी टूट जाती है। दे। गुरु, देव तथा अतिथि का सत्कार करे, दीन सम्यक्दर्शन प्राप्त हो जाता है। जनों को दान दे, सहयोग करे। साधक की यह वह स्थिति है, जब वह योग- आ० हरिभद्र के अनुसार ये लोक-धर्म हैं, जो साधना के योग्य हो जाता है, किन्तु योग-मार्ग पर प्रथम भूमिका के साधक के लिए अनुसरणीय है । आरूढ़ होने के लिए, उस पर अनवरत गतिशील आगे उन्होंने कहा हैरहने हेतु कुछ और चाहिए। वह है ऐसे सात्विक, .. सौम्य, विनीत, सेवासम्पृक्त, करुणाशील जीवन । सदधम्माणुवरोहा वित्ती दाणं च तेण सुविसुद्ध। की उर्वर पृष्ठभूमि, जिसमें योग के बीज अंकुरित, जिणपूय-भोयणविही संझा-नियमो य जोगं तु ॥ उद्गत, अभिवद्धित, पुष्पित एवं फलित हो सकें। चियवंदण-जइविस्सामणा य सवणं इसके लिए आ. हरिभद्र ने योगबिन्दु में पूर्वसेवा के रूप में वैसे सद्गुणों का विवेचन किया। योग गिहिणो इमो वि जोगो किं पुण जो शतक में ग्रन्थकार ने "पूर्वसेवा" पद का प्रयोग तो भावणा-मग्गो ॥३०,३१॥ नहीं किया है, किन्तु व्यवहार योग, योगाधिकारी सद्धर्म के अनुपरोधपूर्वक-सद्धर्म की आराकी पहचान, मार्ग दर्शन, कर्तव्य बोध आदि के रूप धना में बाधा न आए, यह ध्यान में रखते हुए गृही में वही सब कहा है, जो पूर्व सेवा में प्रतिपादित साधक अपनी आजीविका चलाए, विशुद्ध-निर्दोष ) है। लिखा है दान दे, जिनेश्वरदेव-वीतराय प्रभु की पूजा करे, गुरु-विणओ सुस्सूसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थेसु । यथाविधि- यथानियम भोजन करे, सायंकालीन तह चेवाणुट्ठाणं विहि-पडिसेहेसु जहसत्ती ॥५॥ उपासना के नियमों का पालन करे। ४३० पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास | C. च धम्मविसयंति । 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Por Salvate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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