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आप रात्रि के ढाई, तीन बजे निद्रा देवी का “चत्तारि पुप्फा पण्णत्ता, तं जहात्याग कर देते हैं । प्रतिक्रमण का समय आवे तब रूप सम्पन्न णामं एगे, णो गंध सम्पन्ने । तक तो आपकी चार-पाँच हजार गाथाओं की स्वा- गंध सम्पन्न णामं एगे, णो रूप सम्पन्न । ध्याय हो जाती है। फिर प्रतिलेखना आदि से निवृत्त एगे रूप सम्पन्न वि, गंध सम्पन्न वि । होकर व्याख्यान और फिर वही स्वाध्याय का क्रम एगे नो गंध सम्पन्न, नो रूप सम्पन्न । प्रारम्भ हो जाता है । आप भोजन भी बहुत अल्प एवम् एव चत्तारि पुरिसजाया ॥" करते हैं ताकि नींद न आये। प्रमाद ने तो आपको
उक्त पंक्तियों में चार प्रकार के फूलों का वर्णन छुआ तक नहीं है। दर्शनार्थ आये हुए श्रावक
आता हैश्राविकाओं से भी शास्त्र सम्बन्धी चर्चा ही करते हैं। इधर-उधर की फालतू बातें नहीं करते हैं ।
"एक सुन्दर किन्तु गंधहीन, उपसंहार :
एक गंधयुक्त किन्तु सौन्दर्यहीन, आपके गुणों का वर्णन करने में समर्थ कहाँ हूँ ?
एक सुन्दर भी एवं गंधयुक्त भी, बस मैं तो शासनदेव से यही प्रार्थना करती हैं कि
एक न सुन्दर, न गंधयुक्त ॥” । आप चिरायु एवं दीर्घायु हों और चिरकाल तक
__ पुष्पों के समान मानव भी चार प्रकार के होते हम जैसे भूले-भटके प्राणियों को सदबोध देकर हैं, तृतीय श्रेणी के पुष्पों के समान जिन महामानवों सन्मार्ग दर्शन कराती रहें । मैं आपकी चरणसेवा के जीवन में करुणा, दया, सत्य, प्रेम, अहिंसा, धैर्य, मैं आपकी ही वस्तु को समर्पित कर रही हैं। स्वी- सहिष्णुता, विनय आदि गुणों की सुरभि हो, एवं | कार करें।
शरीर से भी सुन्दर, सुडौल हों वे ही श्रेष्ठ मानव चरणों पर अर्पित है इसको
कहलाते हैं तथा समस्त मानव जाति के लिए आदर्श ___ चाहो तो स्वीकार करो, बनते हैं, उनके सद्गुणों की सुगन्ध से सारी मानव __यह तो वस्तु तुम्हारी ही है
सृष्टि महक उठती है। ठुकरा दो या प्यार करो।
प्राची में सूर्य के उदित होने पर सारी जगती प्रकाशित हो जाती है । केतकी का फूल जब अपनी
टहनी पर खिलता है, चारों ओर अपनी सुगन्ध साधना में खिलता कुसुम
बिखेर देता है। इसी प्रकार जब कोई असाधारण
विभूति का अवतरण होता है तो वही परिवार नहीं --साध्वी राजश्री समस्त विश्वोद्यान में महक फैल जाती है, प्रफुल्लित
हो उठता है जगती-तल । ऐसी ही विरल विभूति हैं "स्वर्ण-जयन्ती अवसर पर,
गुरुणीजी श्री कुसुमवतीजी म. सा., जिनका आनन । भेजूं क्या उपहार तुम्हें ।
सदैव कुसुमवत् खिला हुआ रहता है, एवं सद् ज्ञान, स्वीकार इसे ही कर लीजे,
विनम्रता, शान्ति आ | ओतप्रोत । शत शत हो प्रणाम तुम्हें ।"
उनके गुणों की महिमा, प्रतिभा एवं गरिमा | श्रमण संस्कृति के लोक-विश्रुत जैन शास्त्र श्री का किस प्रकार वर्णन करूं, समझ नहीं पा रही हूँ, 'स्थानांग सूत्र' की वे पंक्तियों जिनमें चार प्रकार असीम को ससीम शब्दों की परिधि में कैसे व्यक्त के पुष्पों का वर्णन आता है, सहसा ही मेरे मानस करू, क्या लिख ? यही सोचती हूँ--चाहती हूँ उन्हीं पटल पर आ रही हैं
जैसा विकास में भी कर सकूँ।
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ G ad
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