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EAR आया है। पर मैं तेरे भुलावे में नहीं आ सकती। "तू ही है मेरा अरणक। चल उपाश्रय चल । गुरु
मैं तो अरणकमुनि को ढूंढ रही हूँ। तू मेरा नहीं, महाराज तुझे दिशा देंगे।" जिसका है, उसी के पास जा।"
उपाश्रय में पहुँचकर अरणक मुनि ने गुरुदेव ___ कहते-कहते साध्वी रो पड़ी और मुड़कर आगे अर्हन्मित्र मुनि से उष्ण आतापना द्वारा साधना । चल दी। उन्होंने पुनः आवाज लगाई- “योगी करने की अनुमति मांग ली। अरणक, मूनि अरणक चारित्रपालन की शक्ति
अरणक मुनि तवे की तरह तपती तप्त प्रस्तर-4 रखने वाले अरणक, तू कहाँ है ?"
शिला पर लेट गये । भयंकर गरमी थी। उनकी देह ____ अरणक का हृदय चीत्कार कर उठा । वह दौड़
जल रही थी, पर वे देह को आत्मा से भिन्न समझ कर साध्वी माँ का मार्ग रोककर खड़ा हो गया
कर ध्यानस्थ थे। उनका शरीर झुलसने लगा। है "मा, में तेरा अरणक हूँ। में मुनि हूँ। में भटक समता भाव में डूबे अरणक मुनि ने देह छोड़ दी ।। गया था, पर तूने तो बाँह पकड़कर मुझे किनारे और देवलोक में देव बने । वे जितने नीचे गिरे थे | खड़ा कर दिया है। मैं प्रायश्चित्त करूगा । माँ तू उससे भी अधिक ऊँचे उठ भी गये। ही बता जो व्यक्ति गिर सकता है, क्या वह उठ नहीं सकता ? माँ मुझमें उठने की शक्ति है, मैं
भोगावली कर्म यदि शेष होते हैं तो बड़े-से-बड़ा "माँ, ग्रीष्म से व्याकुल होकर मैं नारी के जाल साधक भी भटक जाता है। लेकिन भोगकाल पूरा में फैसा था तो मैं ग्रीष्म की आतापना सहकर ही होते ही वह पुनः आत्मोद्धार में लग जाता है । GR संथारा करूंगा।"
श्रेणिकपुत्र नन्दिषेण के साथ भी ऐसा ही हुआ था। ___माँ की आँखों में खुशी की चमक आ गईॐ (शेष पृष्ठ ५०७ का)
तरों तक तू इसे, यह तुझे, तू इसे, यह तुझे के मारने क्रोध हमारा जन्मजात शत्रु है। हमारे जन्म के
की परम्परा चलती रहेगी। यह परम्परा है अग्नि के समय यह हमारे साथ ही जन्म लेता है और SUB से अग्नि को बुझाने अथवा रक्त को रक्त से धोने की अवसर की तलाश में सोता रहता है। अवसर भा परम्परा । क्रोध उपशम से और शत्रुता क्षमा से मिलते ही यह एकदम उठता है और हमारा हितैषी 24 से ही मिट सकते हैं। शरणगत को छोड़ दे पुत्र!' बनकर आता है। बड़ी चतुराई से यह बुद्धि को
कुलपुत्र ने बन्धन खोल दिये और शत्रु से ऐसे भनाकर उसकी जगह बैठ जाता है। हम भी इसे है मिला जैसे अपने भाई से मिल रहा हो । दोनों की अपना हितैषी समझकर इसकी बातों में आ जाते
आँखों में हर्ष के आँसू थे। ठकुरानी की आँखें भी हैं और जो यह कहता है वही करते हैं। यह स्थाई गीली हो गईं। न जाने कब तक चलती, वैर की अड्डा बनाकर वैर का रूप धारण करके हमारा और यह परम्परा । उसका अन्त हुआ ज्ञान, विवेक और भी अहित करता है । यह एक ही नहीं, हमारे कई धर्म की धारणा से। जल से रक्त का दाग धुला, जन्म बिगाड़ता है। इससे सावधान रहें। इसकी जल ने ही अग्नि को बुझा दिया, मैत्री ने वैर की जड़ें बातों में न आयें। इसकी बातों में आकर ही तो है काट डाली और वैरी,भाई एवं मित्र-दोनों बन गया कूलपूत्र बारह वर्ष तक जंगलों की खाक छानता। दूना लाभ पाया कुलपुत्र ने । भाई को खोया तो फिरा था । अन्ततः उसने क्रोध को हटाकर सच्चे भाई और मित्र-दोनों एक ही व्यक्ति में पा लिए। शत्रु को भगाने में सफलता पाई।
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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