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कर्म - सिद्धान्त : एक समीक्षात्मक
अध्ययन
- साध्वी श्रतिदर्शना
एम. ए.
| तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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कर्म - सिद्धान्त भारतीय दर्शन का आधार है, नाव ह । प्रायः सभी दर्शनों में कर्म को किसी न किसी रूप में माना गया है, भले ही कर्म के स्वरूप निर्णय में मतैक्य न हो, पर अध्यात्मसिद्धि कर्ममुक्ति पर निर्भर है. इसमें मतभिन्नता नहीं है । प्रत्येक दर्शन में किसी न किसी रूप में कर्म की मीमांसा की है, जैन दर्शन में इसका चिन्तन बहुत ही गहराई विस्तार एवं सूक्ष्मता से किया गया है ।
कर्म का स्वरूप - लौकिक भाषा में तो साधारण तौर से जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं । जैसे - खाना, पीना, चलना, बोलना इत्यादि । श्रुति और स्मृति में भी यही अर्थ किया गया है । उपनिषद् और वेदान्त सूत्रों के अनुसार कर्म सूक्ष्म शरीर को चिपकते हैं और जिससे जीव को अवश्य जन्म-मरण करने पड़ते हैं । सांख्य दर्शन में सत्व, रजस, तमत गुण पर कर्म निर्भर हैं ।
परलोकवादी दार्शनिकों का मत है कि हमारा प्रत्येक कार्यअच्छा हो या बुरा हो अपना संस्कार छोड़ जाता है । जिसे नैयायिक और वैशेषिक धर्माधर्म कहते हैं । योग उसे आशय और अनुशय के नाम से सम्बोधित करते हैं । उक्त ये भिन्न-भिन्न नाम कर्म के अर्थ को ही स्पष्ट करते हैं तात्पर्य यह है कि जन्म जरा मरण रूप संसार के चक्र में पड़े हुए प्राणी, अज्ञान, अविद्या, मिथ्यात्व से आलिप्त हैं जिसके कारण वे संसार का वास्तविक स्वरूप नहीं समझ सकते, अतः उनका जो भी कार्य होता है वह अज्ञानमूलक है, रागद्वेष का दुराग्रह होता है, इसलिए उनका प्रत्येक कार्य आत्मा के बन्धन का कारण होता है ।
सारांश यह है कि उन दार्शनिकों के अनुसार कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्ति का है और उस प्रवृत्ति के मूल में रागद्वेष रहते हैं । यद्यपि प्रवृत्ति क्षणिक होती है किन्तु उसका संस्कार फल- काल तक स्थायी रहता है जिसका परिणाम यह होता है कि संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा चलती रहती है और इसी का नाम संसार है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार कर्म का स्वरूप किसी अंश में उक्त मतों से भिन्न है ।
जैनदर्शन में कर्म केवल संस्कार मात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है, जो जीव की राग-द्वेषात्मक क्रिया से आकर्षित होकर जीव के साथ संश्लिष्ट हो जाता है, उसी तरह घुल-मिल जाता है जैसे दूध में पानी । यद्यपि वह पदार्थ है तो भौतिक, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ़ हो गया है कि जीव के कर्म अर्थात् क्रिया के कारण
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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