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अतप्ति
सामाजिक नीति एवं राजनीति मध्यकालीन हिन्दी इन्द्रिय-निग्रह--स्पर्श, दर्शन, श्रवण, स्वाद व ५ जैन काव्य में उपलब्ध हैं।
__सूंघना पांचों कर्मों के व्यवहार से प्राणी की पहचान का आचार नीति-प्रत्येक मनुष्य के आचरण करने होती है, किन्तु नीतिकारों ने इन इन्द्रिवजन्य कर्मों KE योग्य नैतिक सिद्धान्त आचार नीति के अन्तर्गत का सेवन मर्यादानुकूल और सीमित ही माना है। आते हैं। इन नीति-सिद्धान्तों की अपेक्षा समाज अधिकांश जन नीतिकारों ने हाथी, पतंग, मृग, मीन और शासन की तुलना में व्यक्ति के निजी व्यवहार
और अलि का उदाहरण देते हुए उक्त पाँचों कर्मों के लिए अधिक होती है। मनष्य के निजी आचरण के अत्यधिक सेवन का निषेध किया है। बुधजन र के लिए उपयोगी मानी गई नीतिगत मान्यताएँ दो कहत हैरूपों में प्रस्तुत की गई हैं-विधेयात्मक और गज पतंग मृग मीन अलि, भये अध्य बसि नास । निषेधात्मक । हिन्दी के जैन मुक्तक काव्य में उपलब्ध जाके पांचौ बसि नहीं, ताकी कैसी आस ।।१६।। । आचारगत मूल्य इस प्रकार है
पं० रूपचन्द ने दोहा परमार्थी में इनको दुःखविधेयात्मक आचार नीति
दायी और तृष्णा बढ़ाने वाला कहा है। उनको __ अहिंसा-अहिंसा का सिद्धान्त जैनाचार का धारणा है कि अस्थि का चर्वण करने वाले कुसे के
में अहिंसा की सीमा किसी जीव समान विषया क सवन से विषयो मन की हत्या न करने तक ही सीमित नहीं। महाकवि बनी रहती है, फिर भी अज्ञानता के कारण वह * बुधजन ने चोरी, चुयली, व्यभिचार, क्रोध, कपट, अपनी ही हानि करता रहता हैमद, लोभ, असत्य-भाषण तक को हिंसा का अंग विषयन सेवत हो भले, तिस्ना ते न बुझाइ । मानकर उनके त्याग की प्रेरणा दी है। किसी भी ज्यौं जल खारी पीव तै, बाढे तिस अधिकाय ।।। व्यवहार से अन्य प्राणी का चित्त दुःखाना अहिंसा विषयन सेवत दुख मले, सुष विति हारे जाँन । का उच्चतम आदर्श है । बुधजन के शब्दों में- अस्थि चवत निज रुधिर तै, ज सुख मानत ये हिंसा के भेद हैं, चोर चुगल विभिचार
स्वान ।। क्रोध कपट मद लोभ फुनि, आरम्भ असत विचार। इन्द्रिय-निग्रह का आधार है मन पर नियंत्रण ।
६६८ मनुष्य इन्द्रिय-लोलुप तभी रहता है, जब उसका अपरिग्रह :
मन मतवाले हाथी के समान अंकूश की अवहेलना ___ अध्यात्मी बनारसीदास चित्त की स्थिरता और कर देता है । बनारसीदास का कथन है-- शान्ति के लाभ के लिए अपरिग्रह वत्ति को ग्राह्य ज्यों अंकुस मानें नहीं, महा मत्त गजराज । बतलाते हैं
त्यों मन तिसना में फिर, गिणन काज अकाज ॥१०॥ जहां पवन महिं संचरै, तहं न जल कल्लोल।
-ज्ञान पच्चीसी त्यौं सब परिग्रह त्याग तें, मनसा होय अडोल ।। कवि भगवतीदास ने मन के स्वतन्त्र स्वभाव
-ज्ञान पच्चीसी का चित्रण 'मन बत्तीसी' में करते हुए उस पर क्षमा-दश लक्षण धर्मों में प्रमुखतम, क्षमा- विवेक का अंकुश लगाये रखने का संकेत दिया हैभाव एक अज्ञात कवि की बारहखड़ी रचना 'कको मन सौं बली न दूसरी, देष्यो यहि संसारि। में संघर्ष को दूर करने वाला कहा गया है- तीन लोक मैं फिरत हो, जाइ न लागै बार षषा षुटक निकारि के, विमा भाव चित्त ल्याव । मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप। षुले कपाट अभ्यास के, घिरे कर्म दुखदाय। मन सब बातन जोग है, मन की कथा अनूप ।।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास (C
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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