________________
उपदेशात्मक पद्य रचना
- मानव जीवन क्षणभंगुर है
करले तू आत्म का ज्ञान ।
काल चोर का नहीं भरोसा ४ तजदे तू अन्तर् से मान ॥१॥
यह है मेरा, वह है तेरा झठा तेरा यह अभिमान । कुछ भी नहीं है जग में तेरा बस दो दिन का त मेहमान ।।२।।
प्राण पंछी यह पल में उड़ेगा क्यों करता मानव अभिमान । संभल के चलना जीवन पथ में करना अब निज की पहचान ।।७।।
कौन है राजा, कौन रंक है समय-समय की है यह बात । कभी अस्त है, कभी उदित है । कभी दिवस है, कभी है रात ।।८।।
सत्य-रत्न एक दिव्य-रत्न है अक्षय सुख का है यह कोष । हस्तगत जो भी कर लेता बन जाता जीवन निर्दोष ॥३॥
रंग बिरंगी है यह दुनिया क्यों तू इसमें ललचाया। संभल-संभल के पग तु रखना
यह केवल है बादल छाया ॥४॥ ज्ञान-दीप की दिव्य ज्योति में जीवन जिसका ज्योतिर्मान । अज्ञान तिमिर तिरोहित होता हो जाता उनको निज भान ।।५।।
समता-रस है अमृत-धारा जीवन जिससे है निर्मल । स्नात हुआ है, इसमें जो भी धुल जाता उसका कलिमल ।।।।
पल-भर का है नहीं भरोसा कल-तक की क्यों करता है बात। दो दिन का है यहाँ बसेरा
नहीं चलेगा कुछ भी साथ ।।१०।। जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह में मानव कब तक उलझेगा। स्व-स्वरूप को जानेगा जब तब ही तो वह सुलझेगा ॥११॥
सद्गुण सुमन को चुनते रहिए अक्षय-सख फिर पायेगा। अनुपम-गरिमा तब ही रहेगी जीवन कुसुम खिल जायेगा ॥१२।।
कथनी कुछ है, करनी कुछ है कैसे हो जीवन-उत्थान । जहर पियेगा, कैसे जियेगा सत्य, तथ्य का करिये ज्ञान ।।६।।
५२२
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
6 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
FOP Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org