SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 632
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नम्रता, सरलता, सन्तोष आदि उपर्युक्त कषायों के अथवा दूसरों की रक्षा के लिए जो हिंसा हो जाती सशक्त उपचार हैं । इनका अभ्यास अहिंसा-मार्ग के है, वह विरोधी हिंसा कहलाती है। अवरोधों को दूर कर देता है और मनुष्य को जैसा कि अन्यत्र हमने विवेचित किया है, जैनअहिंसावती बनाकर उसे स्व-जीवन एवं जगत के धर्मानुसार समस्त जीव दो वर्गों में विभक्त हैंकल्याण के लिए समर्थ कर देता है। स्थावर एवं त्रस । जो जीव हमें चलते-फिरते । गृहस्थ को अहिंसा स्पष्पटः दिखाई देते हैं, वे त्रस हैं । इसके विपरीत नग्न चक्षुओं से जो जीव साधारणतः दिखाई नहीं हिंसा न करना-अहिंसा है। यह हिंसा जो देते, होते अवश्य हैं किन्तु अति सूक्ष्म होते हैं, वे I अन्य प्राणियों को कष्ट पहुँचाने अथवा उनके प्राण- स्थावर कहलाते हैं जैसे वायु, मिट्टी, जल आदि । अपहरण से हो जाती है-उसके पीछे कर्ता का के जीव । विभिन्न उपकरणों की सहायता से इन्हें दूस प्रयोजन रहा है अथवा नहीं- इस आधार परहिसा देखा भी जा सकता है। गृहस्थ श्रावक स्थावर ४ प्रकार की होती है जीवों की रक्षा का यथाशक्ति प्रयत्न करता है। (१) संकल्पी हिंसा इस निमित्त से वह अनावश्यक रूप में मिटटी नहीं खोदता, पानी को खराब नहीं करता आदि साव(२) उद्योगी हिंसा धानियाँ रखता है । इसी प्रकार वनस्पतियों को न (३) आरम्भी हिंसा काटना, अनावश्यक रूप से अग्नि प्रज्वलित न (४) विरोधी हिंसा करना, हवा को विलोड़ित न करना आदि भी अन्य किसी जीव का कोई अपराध न हो, हमारे मन प्रकार की सावधानियां हो सकती हैं। त्रस जीवों । में उसके प्रति क्रोध या प्रतिशोध का भाव न हो, का जहाँ तक सम्बन्ध है ग्रहस्थ उनकी संकल्पी । तथापि जान-बूझकर हम उसका प्राण-हरण करें- हिंसा का परित्याग करता है। इस सम्बन्ध यह संकल्पी हिंसा है । उस दशा में मनुष्य के मन विचारणीय यह है कि त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा में जीव का वध करने का स्पष्ट उद्देश्य होता है। के परित्याग में मनुष्य की कोई विशेष हानि होती, आखेटक शस्त्रादि से सज्जित होकर, वन में जाकर न यह दुष्कर है और न इसके कारण कोई विशेष वन्य प्राणियों का शिकार करता है अथवा वधिक अभाव उत्पन्न होता है। निरीह भेड़-बकरियों का वध करता है। यह संकल्पी हिंसा के पीछे मनोविनोद (शिकार), संकल्पी हिंसा कहलाती है। आजीविका के लिए मांसाहार प्राप्त करना आदि जैसे तुच्छ उद्देश्य । मनुष्य को नाना प्रकार से उद्योग-व्यवसायादि निहित होते हैं । इस दृष्टि से जीवन को विपरीत करने पड़ते हैं । कोई खेती करता है, तो कोई कल- रूप से प्रभावित करने का भय संकल्पी हिंसा के कारखानों में काम करता है, कोई सैनिक हो जाता त्याग में नहीं होता। ये ऐसे प्रयोजन नहीं हैं,जिनके Cil है तो कोई व्यापार करता है। इन विभिन्न जीविका- बिना जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता साधनों-खेती, श्रम, युद्ध, व्यापार आदि को अप- हो । मनोविनोद के भी अन्य अनेक स्रोत हैं और नाने में मनुष्य से जो हिंसा जाने-अनजाने में हो आहार की भी कोई कमी नहीं है। मांसाहार के जाती है-वह उद्योगी हिंसा है । जीवन के अति परित्याग से कोई अभाव नहीं उत्पन्न होता। सामान्य क्रिया-कलाप सम्पन्न करने-जैसे भोजन विभिन्न प्रकार के अन्न, फल, वनस्पति आदि तैयार करने आदि में जो हिंसा हो जाती है वह मनुष्य के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक आहार के रूप आरम्भी हिंसा कहलाती है और इसी प्रकार अपनी में इस धरती पर उपलब्ध हैं। माँस मनुष्य का | ५७८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट न साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 0860 Jain Education International Hamirrivate-personalise only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy