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पर्याय नहीं होते। विभाव-पर्यायों के बीजभूत कर्म करता । यह उसका पारमार्थिक स्वभाव है । अन्य का अभाव होने से मुक्त-अवस्था में विभाव-पर्यायें जीव भी अपनी-अपनी इन्द्रियों के द्वारा इसे नहीं कर उत्पन्न ही नहीं होती। बल्कि अनन्तानन्त-अगरु- जान पाते । क्योंकि, एक तो यह अतीन्द्रिय-पदार्थ लघु गुण के कारण जीव का परिणमन वहाँ 'स्व- हैं; दूसरे, स्व-संवेदनज्ञान से ही इसे जाना जाता धर्म' रूप में ही होता है। जिससे मुक्त-आत्माओं में है। जिस प्रकार धुआ-रूप लिङ्ग-चिह्न को देख और उनके गुणों में भी षड्स्थान पतित हानि-वृद्धि कर 'अग्नि' का ज्ञान होता है, इस प्रकार के किसी
के कारण उत्पाद व्यय रूप स्वाभाविक-पर्याय ही लिंग 'चिह्र को देखकर, किसी भी पदार्थ को आत्मा व उत्पन्न होते हैं ।
नहीं जानता । बल्कि, अपने अतीन्द्रिय-प्रत्यक्षज्ञान जीव की मूर्तता/अमूर्तता
के द्वारा ही यह समस्त पदार्थों को जानता है । जैन दर्शन में आत्मा की कथञ्चित मूर्तता और इसी तरह, दूसरे जीव भी किसी इन्द्रियगम्य लिंग कथञ्चित् अमूर्तता मानी गई है। आत्मा, अनादि- विशेष को देखकर आत्मा का अनुमान नहीं करते। काल से ही पुद्गलरूप कर्मों के साथ नीर-क्षीर जैसा इसीलिये इन्द्रियों से अग्राह्यता, शब्दों से अवाच्यता मिश्रित है । चूंकि, पुद्गल का स्वरूप 'मूर्त' है; इस और अतीन्द्रिय-स्वभावता होने के कारण, आत्मा दृष्टि से जीव की मूर्तता मानी गई हैं। वस्तुतः तो की अलिंग ग्रहणता सिद्ध होती है ।14 आत्मा अतीन्द्रिय-इन्द्रियों से अगम्य-पदार्थ है ।इसी बन्धन-बद्धता शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से उसमें अमूर्तता भी है। यद्यपि आत्मा, वस्तुतः अमूर्त और अतीन्द्रिय *
पुद्गल, रूपी-रूपवान् पदार्थ है। उसमें श्वेत, है, तथापि ज्ञान दर्शन-स्वभावी होने के कारण मूर्त- 10 नील, पीत, अरुण और कृष्ण पाँच-वर्ण, तिक्त, कटु, अमूर्त द्रव्यों का द्रष्टा और ज्ञाता भी है। इस कषाय, अम्ल और मधुर पाँच रस, सुगंध दुर्गन्ध जानने-देखने से ही उसका अन्य द्रव्यों के साथ बन्ध II रूप दो-गन्ध, तथा शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, मृदु- होता है । यदि यह ज्ञाता-द्रष्टा न होता, तो बन्धन ककेश, गरू-लघु रूप आठ स्पर्श भी सदा विद्यमान को भी प्राप्त न करता। चूँकि यह देखता है, INS रहते हैं । पुद्गल से संयुक्त होने के कारण सारे के जानता है, इसी से बन्धन में बंधता भी है।15LNAD सारे वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श का योग आत्मा में
कोई एक बालक, मिट्टी के किसी खिलौने को | भी हो जाता है। अमर्त-अतीन्द्रिय ज्ञान से रहित
आत्मीयता से देखता है, और उसे आत्मीय/अपना (5) होने के कारण, मूर्त-पञ्चेन्द्रिय विषयों में आसक्त
जानता/मानता है। किन्तु वह मिट्टी का खिलौना, कर । होने के कारण, मूर्त-कर्मों को अर्जित करने के कारण
वस्तुतः उस बालक से सर्वथा भिन्न है। उससे तथा मूर्त-कर्मों के उदय के कारण व्यावहारिक
उसका किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं अपेक्षा से उसे मर्त माना जाता है।13
होता; तो भी, उस खिलौने को यदि कोई तोड़ता शुद्ध निश्चयदृष्टि से तो जीव आत्मा, अमूत- है उससे छीनता है, तो वह बालक खिन्न हो जाता स्वभाव बाला ही है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द है। बालक और खिलौना, दोनों ही वस्तुतः अलग-५
-आदि पुद्गल भावों से वह रहित है। 'चैतन्य' अलग हैं। तब फिर खिलौने के टूट-फूट जाने, या होने के कारण धर्म, अधर्म आदि चार मूर्त-पदार्थों छिन जाने से बालक को खिन्नता क्यों होती है ? | से भी वह भिन्न है, और एकमात्र शुद्ध-बुद्ध-स्वभाव चंकि बालक, उस खिलौने को अपनत्व-भाव से का धारक होने से 'अमूर्त' भी है।
देखता है; अर्थात्, उस बालक का ज्ञान, खिलौने SMS अतीन्द्रियता/अलिंगग्रहणता
के कारण, तदाकार रूप में परिणत हो जाता है। आत्मा, इन्द्रियों के द्वारा पदार्थों का ग्रहण नहीं इसलिए 'पर-रूप' खिलौने के साथ उसका व्यावतृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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8 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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