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उनको कण्ठस्थ थे । प्रवचन एवं चौपाई भी फरमाते थे । जप- साधना में उन्हें विशेष रूप से अधिक रुचि थी । आगम- स्वाध्याय वे हमेशा करते रहते थे। एक क्षण भी वे व्यर्थ खोना नहीं चाहते थे । चालीस वर्षों की सुदीर्घ अवधि पर्यन्त संयम का पालन किया । संयमोचित क्रिया-साधना के प्रति वे सतत सावधान रहते थे । उनका हृदय निष्कपट था । चित्त सरल था । वे मित एवं मृदुभाषी थे । प्रकृति से भद्र थे ।
ऐसी ममतामयी, संयमयात्रा में सहयोगी माता जी महाराज के वियोग से व्यथित होना स्वाभाविक ही था । परन्तु भेद - विज्ञान की ज्ञाता महासती श्री कुसुमवतीजी म. सा. ने धैर्य से काम लिया । वियोग की असह्य व्यथा को समभाव से सहन किया । सोचा - आत्मा तो ध्रुव है, नित्य है, उसकी कभी मृत्यु नहीं होती । शरीर अस्थायी है, नश्वर है, वह आत्मा का अपना नहीं होता है । अतः शरीर के नष्ट होने पर कैसा शोक, कैसा मोह ? फिर जिसने जन्म लिया है उसको एक न एक दिन मरना ही पड़ता है, यह संसार का ध्रुव सत्य है । फिर शोक करके, मोह में पड़कर कर्मों का बन्धन क्यों बाँधा जाय । ऐसा विचार कर सन्तोष धारण किया । अब तो माताजी महाराज की केवल स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ थीं । जो कुछ भी ग्रहण करना है, उनसे किया जाय ।
अजमेर से बिहार - दीक्षा से लगाकर मृत्यु पर्यन्त चालीस वर्ष तक माताजी महाराज साथ थे । अब उनके स्वर्गवास के पश्चात अपनी शिष्याओं सती श्री चारित्रप्रभा म, सती श्री दिव्यप्रभाजी म. एवं सती श्री दर्शनप्रभाजी म. के साथ अजमेर से विहार कर दिया । ग्रामानुग्राम धर्म प्रचार करते हुए आपने वि. सं. २०३३ का वर्षावास केकड़ी में किया ।
वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् अपनी शिष्याओं के अध्ययन एवं परीक्षा के लिए आप राजस्थान की राजधानी, पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र गुलाबी नगर जयपुर पधारीं । कुछ अपरिहार्य कारणों से परीक्षाओं की तिथि कुछ आगे बढ़ा दी गई थी । इस कारण लम्बे समय तक आपको जयपुर में ठहरना
पड़ा ।
वर्षावास दिल्ली - जब आप जयपुर में विराज रहे थे, तब विभिन्न स्थानों से आपकी सेवा में वर्षावास हेतु बराबर विनतियाँ आ रही थीं । इनमें श्रीसंघ दिल्ली, जयपुर और अलवर का आग्रह अधिक था । उन तीनों में भी श्रीसंघ दिल्ली का अत्यधिक आग्रह था । देश, काल, परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए आपने दिल्ली श्रीसंघ को वि. सं. २०३४ के वर्षावास की स्वीकृति प्रदान कर दी । समय कम था और जयपुर से दिल्ली पहुँचना था । परीक्षाएँ समाप्त हुईं तब वर्षावास प्रारम्भ होने में एक माह शेष था । इसीलिए जैसे ही परीक्षाएँ समाप्त हुईं वैसे ही आपने अपनी शिष्याओं के साथ दिल्ली की ओर विहार कर दिया । भीषण गर्मी में लम्बे-लम्बे विहार । मार्ग भी निरापद नहीं था । कहीं बीहड़ की कठिनाई तो कहीं जैन साधुओं एवं उनकी परम्पराओं से सर्वथा अपरिचित लोग, सभी प्रकार की विघ्नबाघाओं को सहन करके २०-२२ दिन में आप दिल्ली जा पहुँचीं । दिल्ली आगमन पर दिल्ली के निवासियों ने आपका भव्य स्वागत किया और समारोहपूर्वक नगर प्रवेश करवाया ।
वर्षावास के लिए दिल्ली के चाँदनी चौक क्ष ेत्र में पदार्पण हुआ । चाँदनी चौक के स्थानक बारादरी (महावीर भवन) में आपके ओजस्वी प्रवचनों की जो धारा प्रवाहित हुई, उससे वहाँ का जनमानस अत्यधिक प्रभावित हुआ । तपश्चर्यायें भी बहुत हुईं। अनेक वर्षों के पश्चात् इस चातुर्मास में द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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