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व्यतीत हो गया । उपचार बराबर चलता रहा किन्तु स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ, वरन् स्वास्थ्य दिन पर दिन और अधिक बिगडता गया। माताजी महाराज की अस्वस्थता के समाचार आसपास के ग्राम-नगरों तक भी पहुँच चुके थे। इसके परिणामस्वरूप अनेक श्रद्धालु भक्त स्वास्थ्य पृच्छा एवं दर्शनार्थ भी आने लगे थे । कई लोगों ने ब्यावर-अजमेर ले जाने का भो आग्रह भरा अनुरोध किया था किन्तु उस समय ऐसी स्थिति नहीं थी। जब स्वास्थ्य सुधार के कोई लक्षण दिखाई नहीं दिये तब श्री संघ ने आग्रह भरी विनती की कि आप अजमेर पधारें । अजमेर में सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहाँ समुचित । उपचार सम्भव है । अन्ततः माताजी महाराज को अजमेर ले जाया गया।
माताजी महाराज का वियोग-अजमेर पधारने के पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि माताजी महाराज का उपचार चिकित्सालय में ही करवाया जाये। लेकिन रात्रि में व्याधि अधिक बढ़ गई। चिकित्सालय ले जाना स्थगित कर दिया गया। उस दिन संवत् २०३३ चैत्र शुक्ला सप्तमी को आयम्बिल ओली का प्रारम्भिक दिवस था। पांडाल में ढाई सौ तीन सौ आयम्बिल हो रहे थे। दोपहर के समय संलेखना-संथारापूर्वक माताजी महाराज अपनी पार्थिव देह का त्याग कर अनन्त की यात्रा के महायात्री बन गये । उनके देहावसान से सर्वत्र शोक छा गया ।
काल की महिमा अगम्य है। भविष्य के गर्भ में क्या छिपा हुआ है, उसको कोई नहीं जान । सकता । मृत्यु के समक्ष, तीर्थकर, चक्रवर्ती, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, राजा और रंक किसी भी प्राणी का एक कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। माताजी महाराज के स्वर्गवास से सभी को बहुत दुःख हुआ। महासती श्री कुसूमवतीजी म. सा. को गहरा आघात लगा। जन्म से लेकर इतने लम्बे समय तक वे छाया की तरह आपके साथ रहे। माता का अपनी सन्तान के प्रति स्नेह तो होता ही है लेकिन माताजी महाराज का स्नेह असीम था । वे वत्सलता को साक्षात् प्रतिमूर्ति थीं। स्वयं के पहाड़ सदृश दुःख को भी वे परवाह नहीं करती थीं लेकिन आपकी स्वल्प-सी रुग्णता भी उन्हें अत्यधिक चिन्तित, बेचैन और व्यथित कर देती थी। माताजी म. से आपको माता की ममता और पिता का स्नेह दोनों ही मिले थे । इसलिए ऐसे माताजी म. के वियोग पर गहरा दुःख होना स्वाभाविक ही है।
स्मृतियाँ और स्मृतियाँ-आपने अपने माताजी महाराज के नेतृत्व में रहकर ही इतना ज्ञानाभ्यास किया और जिनशासन को ज्योति बन सकीं। माताजी महाराज ने आपके जीवन विकास में, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, स्वाध्याय-प्रवचन में सक्रिय सहयोग दिया था । वात्सल्यमूर्ति माताजी महाराज के कारण आपको ज्ञान साधना के लिए पूरा-पूरा समय मिल जाया करता था। गोचरी लाना, पानी लाना (आहार-पानी लाना), पात्रे साफ करना, कपड़े धोना, सिलाई करना आदि सभी कार्य वे कर लेते थे । जब कभी आप करने लगते तो वे कहते-"नहीं, रहने दो। तुम तो ज्ञान-ध्यान की ओर ध्यान दो, वही करो। ये कार्य मैं कर लूंगी।" माताजी महाराज का उद्देश्य यही था कि ज्ञानार्जन करके ये जैनधर्म का प्रचार और प्रसार करें, जिनशासन की प्रभाविका बनें। न केवल अपनी पुत्री के लिए वरन् अन्य सभी साध्वियों के पठन-पाठन में भी उन्होंने पूर्ण सहयोग प्रदान किया था। संसार पक्ष में वे मेरी बुआ सा. थे। मेरे अध्ययन में भी उनका भरपूर सहयोग रहा।
माताजी महाराज में सेवा भावना एवं विनय बहुत अधिक था । छोटे-बड़े अनेक साधु-साध्वियों की उन्होंने सेवा की थी। सेवा के अतिरिक्त वे ज्ञानाभ्यास भी करते थे। अनेक शास्त्र, थोक्डे आदि
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द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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