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________________ F-IN शरण में आये हैं, उन्हें भी आपने शान्ति प्रदान की जब वे स्वयं वीतरागी हैं तब किसी के सुख-दुःख से 5 1 है। अतः आप मेरे लिए भी संसार के दुःखों-भयों उनका क्या प्रयोजन ? इसका उत्तर 'दशभक्त्यादि का को शान्त करने में शरण है। संग्रह' में दिया है कि यद्यपि भगवान फल देने में जहाँ तक दूसरे तर्क का प्रश्न है वहाँ यही निस्पृह हैं किन्तु भक्त कल्पवृक्ष के समान उनके ( कहना पर्याप्त है कि जो राग लौकिक अभ्युदय या ' निमित्त से भक्ति का फल पा जाता है। यथा निश्चेतनाश्चिन्ता मणिकल्प महीरहाः । प्रयोजन के लिए किया जाता है वही बन्धन का कृत पुण्यानुसारेण तदभीष्टफलप्रदाः ।। कारण होता है किन्तु इसके विपरीत जो राग तथाहदादयश्चास्त रागद्वेष प्रवृत्तयः । वीतराग से किया जाता है, वह तो मुक्तिदायक भक्त भक्त्यनुसारेण स्वर्ग मोक्षफलप्रदाः ।। होता है । गीता में इसी को व्यापक अर्थ में सकाम -दशभक्त्यादि संग्रह ३/४ निष्काम कर्म से समझाया गया है। सकाम कर्म जिस प्रकार चिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष यद्यपि बन्ध का कारण होता है और निष्काम कर्म मोक्ष अचेतन हैं फिर भी वे पुण्यवान पुरुष को उसके अभीष्ट का । जैन-भक्त अर्हन्त भगवान से कुछ पाने की के अनुकूल फल देते हैं उसी प्रकार अर्हन्त या सिद्ध ॥5 कामना नहीं करता वरन् उसका भाव निष्काम होता है । कल्याण मन्दिर (४२) में कहा गया है राग, द्वेष रहित होने पर भी भक्तों को उनकी भक्ति के अनुसार फल देते हैं। इस तथ्य की पुष्टि यद्यस्ति नाथ भवदङ घ्रि सरोव्हणां, आचार्य समन्तभद्र के वचनों से भी होती। भक्तेः फलं किमपि सन्तत सञ्चितायाः । न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ! भूयाः, न निंदया नाथ ! विबान्तवैरे। स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ।। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः हे नाथ ! आपकी स्तुति कर मैं आपसे अन्य पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ किसी फल की चाह नहीं करता, केवल यही चाहता यद्यपि वीतराग देव को किसी की स्तुति, हूँ कि भव-भवान्तरों में सदा आप ही मेरे स्वामी प्रशंसा या निन्दा से कोई प्रयोजन नहीं फिर भी रहें। जिससे आपको अपना आदर्श बनाकर अपने उनके गुणों के स्मरण से भक्त का मन पवित्र हो को आपके समान बना सकू। जाता है। दूसरी बात यह है कि 'पर' के प्रति राग-बन्धन अन्तिम शंका जो जैनधर्म को भक्ति-विरोधिनी का कारण होता है किन्तु 'आत्म' का अनुसन्धान सिद्ध करने के लिए की जाती है वह यह है कि जैन का तो मुक्ति का कारण है । परमात्मा 'पर' नहीं, 'स्व' धर्म वस्तुतः ज्ञानप्रधान धर्म है। इसमें भक्ति के " है-एहु जु अप्पा सो परमप्पा (परमात्म प्रकाश, लिये कोई स्थान नहीं हो सकता। वस्तुतः भारतीय | १४७) । अतः जिनेन्द्र का कीर्तन करने वाले अपनी धर्म-साधना में ज्ञान और भक्ति को एक दूसरे से मार | आत्मा का ही कीर्तन करते हैं, आत्मा का ही " पृथक् करके नहीं देखा गया है क्योंकि दोनों के मूल श्रवण, मनन और निदिध्यासन करते हैं । उपनिषद् में श्रद्धा है । श्रद्धावां लभते ज्ञानम्-यह गीता का (वृहदा० ४/५-याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद) का भी __ मत है । भक्ति की जड़ में तो श्रद्धा है ही । आचार्य फन्दकन्द ने भक्ति से ज्ञान-प्राप्ति की प्रार्थना भगयही मत है। वान से की हैतीसरी आलोचना भगवान के वीतराग-भाव से इमघायकम्म मुक्को अठारह दोस वज्जियो सयलो सम्बन्धित है। क्या वीतराग की भक्ति या उपासना तिहवण भवण पदीवो देउ मम उत्तम बोहिं।। से दुःख या दुःख के कारणों का अभाव सम्भव है ? -भावपाहुड १५२वीं गाथा ORGROORORRORGEOGROLORSRACROGRICORD पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ३६५ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ JaNmdation Internation Nor Private & Personal Use Only www.jaINSTSVary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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