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कालक का अपनी बहन सरस्वती पर अपार स्नेह था। गुणावर मुनि के उपदेश से दोनों ने जैन दीक्षा ग्रहण की। उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल द्वारा सरस्वती का अपहरण और फिर कालकाचार्य द्वारा शकों की सहायता से अपनी बहन साध्वी सरस्वती को मुक्त कराना, इतिहास की प्रसिद्ध घटना है ।
इसी शताब्दी में आर्य वज्र की माता सुनन्दा ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। उन्होंने कब व किसके एक पास दीक्षा ग्रहण की थी, यह जानकारी उपलब्ध नहीं होती है ।
__वीरनिर्वाण की छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में साध्वी रुक्मिणी का वर्णन मिलता है । वह पाटली-|| पुत्र के कोट्याधीश श्रेष्ठी धन की इकलौती पुत्री थी । आर्य वज्र के अनुपम रूप को निहार कर मुग्ध हो गई । उसने अपने हृदय की बात अपने पिता से कही। वह एक अरब मुद्राएँ तथा दिव्य वस्त्राभूषणों को लेकर वज्रस्वामी के पास पहुँचा। किन्तु रुक्मिणी ने वज्रस्वामी के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की और रुक्मिणी और वज्रस्वामी के अपूर्व त्याग को देखकर सभी श्रद्धावनत हो गये।
इसी अवधि में एक विदेशी महिला द्वारा आइती दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है। विशेषावश्यकभाष्य तथा निशीथचूणि में वर्णन मिलता है कि मुरुण्डराज की विधवा बहन प्रव्रज्या लेना In चाहती थी। मुरुण्डराज ने साध्वियों की परीक्षा लेने हेतु एक आयोजन किया कि कौन साध्वी कैसी है ? एक भीमकाय हाथी पर महावत बैठ गया और चौराहे पर खड़ा हो गया। जब कोई भी साध्वी उधर से निकलती तब महावत हाथी को साध्वी की ओर बढ़ाते हुए साध्वी को चेतावनो देता कि सभी वस्त्रों का परित्याग कर निर्वसना हो जाय, नहीं तो यह हाथी तुम्हें अपने पैरों से कुचल डालेगा। अनेक साध्वियाँ, परिव्राजिकाएँ, भिक्षुणियाँ उधर से निकलीं। भयभीत होकर उन्होंने वस्त्रों का परित्याग कर दिया। अन्त में एक जैन श्रमणी उधर आई। श्रमणी के धैर्य की कठोर परीक्षा लेने के लिए हाथी ज्योंही उसकी ओर बढ़ने लगा, त्योंही उसने क्रमशः अपने धर्मोपकरण उधर फेंक दिये, उसके पश्चात् साध्वी हाथी के इधर-उधर घूमने लगी। किन्तु उसने अपना वस्त्र-त्याग नहीं किया। जब जन-समूह ने यह दृश्य देखा तो उसका आक्रोश उभर आया। मुरुण्डराज ने भी संकेत कर हाथी को हस्तिशाला में भिजवा दिया और उसी श्रमणी के पास अपनी बहन को प्रबजित करवाया । उस साहसी श्रमणी तथा मुरुण्डराज की बहन का नाम उपलब्ध नहीं होता है।
साध्वी रुद्रसोमा-- वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में आर्यरक्षित की माता साध्वी रुद्रसोमा काम नाम भी उल्लेखनीय है। जब आर्यरक्षित गम्भीर अध्ययन कर लौटा था तो उसे पूर्वो का अध्ययन करने हेतु माता रुद्रसोमा ने आचार्य तोसलीपुत्र के पास भेजा था। रुद्रसोमा की प्रेरणा से ही राजपुरोहित सोमदेव तथा उसके परिवार के अनेकों व्यक्तियों ने आहती दीक्षा स्वीकार की और स्वयं उसने भी। उसका यशस्वी जीवन इतिहास की अनमोल सम्पदा है ।
दानवीरा श्रमणी ईश्वरी--श्रमणी ईश्वरी भी वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के अन्त में हुई। उसके पति का नाम श्रेष्ठी जिनदत्त था, जो सोपारक नगर का रहने वाला था। सोपारक नगर में भयंकर दुष्काल पड़ा था। एक लाख मुद्रा से अंजली भर अन्न प्राप्त हो पाया था। उसमें विष मिलाकर सभी ने मरने का निश्चय किया। उसी समय मुनि भिक्षार्थ आये । मुनि दर्शन से ईश्वरी भावविभोर हो गई। आर्य वज्रसेन ने ईश्वरी को बताया कि अन्न में विष मिलाने की आवश्यकता नहीं है। कल से सुकाल होगा। उसी रात्रि में अन्न के जहाज आ गये। जिससे जीवन में सुख-शांति हो गई। ईश्वरी की प्रेरणा
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द्वितीय खण्ड: जीवन-दर्शन
20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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