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__ अहिंसा से अनुप्राणित अर्थ तन्त्र : अपरिग्रह- भगवान् महावीर ने पहचाना था। इसी कारण अहिंसा के साथ ही जुड़ी हुई भावनाएं हैं-अपरि- उन्होंने कहा कि जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा ग्रहवाद एवं अनेकांतवाद । परिग्रह से आसक्ति एव करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन ममता का जन्म होता है। अपरिग्रह वस्तुओं के का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता प्रति ममत्वहीनता का नाम है । जब व्यक्ति अहिंसक है। परिग्रह को घटाने से ही हिंसा, असत्य, अस्तेय होता है, रागद्वेष रहित होता है तो स्वयमेव अप- एवं कुशील इन चारों पर रोक लगाती है । रिग्रहवादी हो जाता है। उसकी जीवन-दृष्टि बदल जाती है। भौतिक-पदार्थों के प्रति आसक्ति समाप्त
परिग्रह के परिमाण के लिए 'संयम' की साधना हो जाती है। अहिंसा की भावना से प्रेरित व्यक्ति
आवश्यक है। 'संयम' पारलौकिक आनन्द के लिए अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाता
ही नहीं, इस लोक के जीवन को सूखी बनाने के है, जिससे किसी अन्य प्राणी के हितों को आघात
लिए भी आवश्यक है। आधुनिक युग में पाश्चात्य 710 न पहुँचे।
जगत के विचारकों ने स्वच्छंद यौनाचार एवं निधि
इच्छा-तप्ति की प्रवृत्ति को सहज मान लिया। इस बहुत अधिक उत्पादन मात्र करने से ही हमारी
कारण पाश्चात्य जगत के व्यक्ति एवं समाज ने सामाजिक समस्याएँ नहीं सुलझ सकतीं। हमें व्यक्ति
'व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा अचेतन मन की संतुष्टि' के चित्त को अन्दर से बदलना होगा। उसकी
आदि सिद्धान्तों के नाम पर जिस प्रकार का संयमकामनाओं, इच्छाओं को सीमित करना होगा तभी
हीन आचरण किया उसका परिणाम क्या निकला हमारी बहुत सारी सामाजिक समस्याओं को सुल
है ? जीवन की लक्ष्यहीन, सिद्धान्तहीन, मूल्यविहीन झाया जा सकेगा।
स्थिति एवं निर्बाध भोगों में निरत समाज की ऐसा नहीं हो सकता कि कोई सामाजिक प्राणी स्थिति क्या है ? उनके पास पैसा है, धन-दौलत है, सम्पूर्ण पदार्थों को छोड़ दें। किन्तु हम अपने जीवन साधन हैं किन्त फिर भी जीवन में संत्रास. अविको इस प्रकार से ढाल सकते हैं कि पदाथ हमार श्वास. अतप्ति. वितष्णा एवं कठाएँ हैं। हिप्पी पास रहें किन्तु उनके प्रति हमारी आसक्ति न हो, सम्प्रदाय क्या इसी प्रकार की सामाजिक स्थिउनके प्रति हमारा ममत्व न हो।
तियों का परिणाम नहीं है । समाज में इच्छाओं को संयमित करने की
वैचारिक अहिंसा : अनेकान्तवाद -- अहिंसक भावना का विकास आवश्यक है। इसके बिना
व्यक्ति आग्रही नहीं होता। उसका प्रयत्न होता है
र मनुष्य को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। 'पर- नियों
कि वह दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुँचावे कल्याण' की चेतना व्यक्ति की इच्छाओं को लगाम वह सत्य की तो खोज करता है, किन्तु उसकी म लगाती है तथा उसमें त्याग करने की प्रवृत्ति एवं कथन-शेली में अनाग्रह एवं प्रेम होता है। अनेअपरिग्रही भावना का विकास करती है।
कान्तवाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है। परिग्रह की वृत्ति मनुष्य को अनुदार बनाती है, उसकी आत्यन्तिक-दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिह्न उसकी मानवीयता को नष्ट करती है। उसकी लगाता है । अनेकान्तवाद यह स्थापना करता है लालसा बढ़ती जाती है। धनलिप्सा एवं अर्थ- कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुण एवं धर्म होते हैं। लोलुपता ही उसका जीवन-लक्ष्य हो जाता है। सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा उसकी जिन्दगी पाशविक शोषणता के रास्ते पर एकदम सम्भव नहीं हो पाता। अपनी सीमित दृष्टि बढ़ना आरम्भ कर देती है । इसके दुष्परिणामों को से देखने पर हमें वस्तु के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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