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वर्णन किया है, जबकि हेमचंद्रकृत योगशास्त्र में उसके दर्शन पक्ष के अध्ययन के लिए ही सम्भवतः साधना पक्ष का बहुत विस्तार से एवं स्पष्ट विव- होता रहा है । जबकि जैन आचार्यों ने ग्रन्थों में भी रण दिया गया है एवं दर्शन पक्ष की भी उपेक्षा उसका निबन्धन करके तथा सामान्य गृहस्थों के नहीं की गई है । इसी प्रसंग में यदि हम आचार्य लिए एक सीमित मात्रा में उसको अनिवार्य घोषित . हरिभद्रसूरि के योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु कर योग साधना को जन सामान्य तक पहुँचाने योगविशिका और योगशतक के विवेचन को का महनीय कार्य किया है। और यह उनका योगभी सम्मिलित कर लें तो यह निष्कर्ष प्राप्त होगा दान लोक तथा योग विद्या दोनों के लिए एक अविकि पतञ्जलि की परम्परा में योग साधना शिष्य स्मरणोय योगदान मानना चाहिए। को गुरु से ही प्राप्त होती रही है, ग्रंथों का अध्ययन
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सन्दर्भ १ अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः। (१.१२) ईश्वर प्रणिधानाद्वा (१ प्रच्छर्दन विधारणाभ्यां वा प्राणम्य (१.३४) विषयवती वा पंवृत्ति सत्पन्ना मनसः स्थिति निबन्धिंनी (१.३५) विशोका वा ज्योतिष्मती (१.३६)
तीतारागविषयं वा चित्तम् (१.३७)। स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा (१.३८) यथाभिमतध्यानाद्वा (१.३६) । योगसूत्र २ योगद्दष्टि समुच्चय, ३
३ योगदृष्टि समुच्चय, ४ ४ ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा, श्रुतानुमान प्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।
-योग सूत्र १.४८-४६ ५ योगदृष्टिसमुच्चय ५-
८ ६ योगदृष्टि समुच्चय ११ ७ गीता २.५६-५७
८ क्षिप्तं मढं विक्षिप्तमेकान निरुद्धमिति चित्तभूमयः । योगभाष्य १.१ पृष्ठ १ 8 निविचार वैशारोऽध्यात्मप्रसादः । ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा। तज्जः संस्कारोन्य संस्कार प्रतिवन्धी । तस्यापि निरोध सर्वनिरोधान्निर्वीजः समाधिः।।
-योग सूत्र १.४७-४८-५०-५१ १० मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कांता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां""। -योगदृष्टिसमुच्चय १३ ११ यमादि योग युक्तानां खेदादि परिहारतः । अद्वषादिगुणस्थानं क्रमेणैषा सताम्मता। -योगदृष्टि समुच्चय १६
__ अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः । -यो० सू० २.३५. १३ मित्रायां दर्शनं मन्दं यम इच्छादिकं तथा । आवेदो देवकार्यादो अद्वेषश्चापरत्र च ।-योगदृष्टि समुच्चय २१ । । १४ वही० २४-२७.
१५ यो. सू. २.४६, ५२-५३ । १६ तदपि बहिरंग निर्बीजस्य । -यो. सू. ३.८। १७ त्रयमन्तरंग पूर्वेभ्यः । -यो. सूत्र. ३७-१ । १८ योगदृष्टि समुच्चय ४६-५६ ।। १६ असम्मोहसमुत्थानि त्वेकान्तपरिरुद्धितः। निर्वाण फलान्याशु भावातीतार्थ यायिनाम् ॥
-वही १२६ २० केवले कुम्भके सिद्ध रेचपूरक वजिते । न तस्य दुर्लभं किंचि लिषु लोकेषु विद्यते ।।
-दत्तात्रेय योगशास्त्र१४-४० २१ वायु निरुध्य मेधावी जीवन्मुक्तो भवेद् ध्र वम् । -वही २४६ २२ योगदृष्टि समुच्चय १५३-१६१।
२३ भगवद्गीता। २४ योगदृष्टि समुच्चय १६२-१६६ । __ कन्दर्पस्य यथारूपं तथा तस्यापि योगिनः। तद्रूपवशगा: नार्यः क्षन्ते तस्य संगमम् ॥
-दत्ता० यो० शा० १०५-१६७
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तुतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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