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आगम साहित्य में
ध्यान का स्वरूप
मनुष्य के पास जितने भी साधन सुख-प्राप्ति के लिए हैं, उन साधनों के रहते हुए भी मनुष्य उतना ही अधिक तनावग्रस्त, दुखी, चिन्तित दिखाई देता है । बौद्धिक एवं वैज्ञानिक यह बात आग्रहपूर्वक कह रहे हैं कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति शारीरिक कष्ट से उतनी दुखी नहीं है, जितनी मानसिक ताप से। इससे मुक्ति पाने के लिए ध्यान एकमात्र परमौषधि है। ध्यान के द्वारा मनुष्यों की मानसिक पीड़ा नष्ट की जा सकती है । इसीलिए जागरूक एवं ध्यान-साधना में परिपक्व महापुरुषों के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में ध्यान की ओर मनुष्यों को प्रेरित किया जा रहा है, उन्हें आकृष्ट किया जा रहा है । ___'ध्यानं आत्मस्वरूप चिन्तनम्' अर्थात् आत्मस्वरूप का चिन्तन ही ध्यान है। इसमें ध्याता, ध्यान, ध्येय और संवर-निर्जरा ये चार बातें आती हैं। ___ ध्यान के महत्व के विषय में भगवान महावीर का एक महत्वपूर्ण सूत्र है
'सीसं जहा सरीरस्स जहा मूलं दुमस्स च । सध्वस्स साधु धम्मस्स तहा ध्यानं विधीयते ।।'
-समण सुत्तं ४ (४) अर्थात् मनुष्य के शरीर में जैसे सिर महत्वपूर्ण है, वृक्षों में जैसे जड़ महत्वपूर्ण है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। __ध्यान के अभ्यास से आत्मीय शक्तियां विकसित होती हैं । आत्मा की शुद्ध अवस्था प्राप्त होती है। ध्यान के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का मत है कि उत्तम संहनन वाले जीव का किसी पदार्थ में अन्तर्मुहूर्त के लिए चिन्ता का निरोध होता है, वही ध्यान है।
स्थानांग (ठाणांग) सूत्र में चार प्रकार के ध्यान वणित हैं- (१) आर्त ध्यान (२) रौद्र ध्यान (३) धर्म ध्यान और (४) शुक्ल ध्यान । चारों में प्रथम दो ध्यान आर्त और रौद्र संसार भ्रमण कराते हैं।
और अन्तिम दो धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान मोक्ष की प्राप्ति करवाने में सहायक होते हैं। ___इन चारों प्रकार के ध्यान का अर्थ भी भली प्रकार समझ लेना आवश्यक है।
(१) आर्त्त ध्यान-स्त्री, पुत्र, रत्न, अलंकार, आभूषण एवं समस्त भोग सामग्री के वियोग को बचाने के लिए तथा इन्हीं की प्राप्ति के लिए जो चिन्तन-मनन होता है, उसी का नाम आर्तध्यान है।
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-युवाचार्य डॉ. शिवमुनि
श्रमण संघ के मंत्री
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
(2) 63.
60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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