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धियों को दारुण कष्ट दिए जाते। उन्हें वहाँ पर क्षुधा तृषा और शीत-उष्ण आदि अनेक तरह के कष्ट सहन करने पड़ते थे । उनका मुख म्लान हो जाता था । अपने ही मल-मूत्र में पड़े रहने के कारण उनके शरीर में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते, उनका प्राणान्त हो जाने के पश्चात् उनके पैर में रस्सी बाँधकर खाई में फेंक देते । भेड़िए, कुत्ते, शृगाल, मार्जार आदि वन्य पशु उनका भक्षण कर जाते । कैदियों को विविध प्रकार के बन्धनों से बाँधते । बाँस, बेंत व चमड़े के चाबुक से उन्हें मारते थे । लोहे की तीक्ष्ण शलाकाओं से, सूचिकाओं से उनके शरीर को बींध देते थे । 1
उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समय के प्रवाह के साथ-साथ अपराधों में भी वृद्धि होती गई और उसके अनुरूप ही दण्ड व्यवस्था में भी परिवर्तन होता गया ।
१. भगवान महावीर : एक अनुशीलन, पृष्ठ ८३-८४
(शेष पृष्ठ ३२२ का )
कर्म को गहित ही मानते हैं और इससे सदा वचने का प्रयास करते हैं ।
वर्तमान युग में जितना भी तनाव, मानसिक कुण्ठाएँ और त्रास मनुष्य बरबस भुगत रहा है उसका एकमात्र उपाय अस्तेय का पालन, कठोरता के साथ, करना है । चोरी के नित नये हथकण्डों का आयोजन जैसे वह छोड़ देगा वैसे ही उसके समाज में व्यवस्था, शान्ति और समृद्धि भी आती जायेगी और वह अन्य व्रतों का पालन निष्ठापूर्वक करने लगेगा |
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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कठोर दण्डनीति का विधान इसलिए किया गया प्रतीत होता है ताकि अपराध करने वाला दण्डनीति से डरकर अपराध न करे। कई बार इस प्रकार की कठोर नीति सफल भी रही है । मानस पटल पर एक विचार उद्भूत होता है कि जैसे-जैसे सभ्यता और संस्कृति का विकास होता जा रहा है वैसे-वैसे अनाचार, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, राग-द्वेष, मेरा-तेरा, हिंसा, चोरी-डकैती, तस्करी, अपहरण, बेईमानी जैसी भावनाएँ और अपराधों में निरन्तर वृद्धि होतो जा रही है । इस प्रकार की प्रवृत्ति का ठहराव कहाँ आएगा ? कुछ नहीं कहा जा सकता । यहाँ तो इतना ही कहना है कि जैन साहित्य का समुचित अनुशीलन कर इस विषय पर व्यवस्थित रूप से विस्तार में लिखने की आवश्यकता है । हो सकता है कि जो लिखा जाए वह देश और समाज का मार्गदर्शन करे ।
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निष्कर्षतः जब परकीय वस्तु में किसी प्रकार का राग न होगा तो अस्तेय में प्रतिष्ठित होकर साधक की रत्नों में प्रतिष्ठा हो जाती है और लक्ष्मी उसको चेरी बन जाती है । जैनेतर भारतीय समाज की अपेक्षा आज भी जैन समाज में व्रतों का पालन बड़ी निष्ठा और आस्था से किया जाता है । यही कारण है कि भगवान् ऋषभदेव से लेकर आज तक जैन धर्म अक्षुण्ण है ।
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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