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में तपना, पकना, कठिनाइयों और मुसीबतों में धैर्य शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी संयोग धारण करने का अभ्यास अनुकूल, परिस्थितियों में सम्बन्ध हैं, वे आज जैसे हैं, वैसे सदा रहने वाले II रोगासक्त न होना, कष्टसहिष्णुता और सहनशीलता नहीं हैं । फिर उन पर क्यों आसक्ति ? उनके लिए का भाव विकसित करना, बिना स्वार्थ के लोकहित क्यों संघर्ष ? उनमें क्यों भोग-बुद्धि ? यों सोचतेके लिए अपने को खपाना और शरीर तथा आत्मा सोचते जब आपकी विवेकवती बुद्धि प्रज्ञावती बुद्धि ) के भेद को समझकर समताभाव में रमण करते हुए जागृत होगी, तब आप तनाव में नहीं रहेंगे, कषाय चिन्मयता से साक्षात्कार करना।
कलषित नहीं रहेंगे. समतायुक्त बनेंगे. समतादर्शी
बनेंगे । आपका दैनिक जीवन दैविक जीवन में | अहिंसा, संयम और तप रूप इस धाराधना जोगा। में प्रवेश करने के लिए महावीर ने चार द्वारों की
आज हमारी बुद्धि भोगबुद्धि और वृत्ति उप-PRAM ओर संकेत किया है। वे हैं-धर्म, निर्लोभता. सर
भोगवृत्ति बनती जा रही है। यही कारण है कि TOD लता और नम्रता । हम अपने दैनिक जीवन में यदि
हम दिन को भी रात बनाकर जीते हैं । हम महाइन द्वारों में होकर निकलने की कला सीख जायें
वीरता को अपनी चेतना के स्तर पर नहीं उतार-- तो हमारे रागद्वेष, लड़ाई-झगड़े, कलह-क्लेश शान्त कर, जो अपने से परे जीव जगत है, उसे शासित हो सकते हैं । जब भी कोई परिस्थिति आये हम उसे करने में उन पर अधिकार जमाने में, उनकी स्वा- || अनकान्त दाष्ट स दख, वावध काणा स उस पर धीनता छीनने में. उसके सख-दःख पर अपना नियविचार करें, विभिन्न अपेक्षाओं से उसे तोलें। फिर
भिन्न अपक्षाआ स उस ताल । फिर त्रण करने में अपनी वीरता-महावीरता का प्रदर्शन धीरे-धीरे आप अनुभव करेंगे कि आपका क्रोध कम करते हैं। पर यह महावीरता. महावीरता नहीं है, 5 होता जा रहा है और क्रोधी व्यक्ति पर आपके मन यह तो पाशविकता है, बर्बरता है, क्रूरता है, कठो-मा में दया और क्षमा का भाव प्रकट होता जा रहा है। रता है। जब हम अपने मन को आस्थावान, सबल, रु जब भी टेढ़ेपन अथवा वक्रता की बात आए आप उज्ज्वल, निर्मल, वीतराग बनायेंगे तब कहीं सच्ची अपने मन को हल्का कर लें, सरल बना लें। मन महावीरता प्रकट होगी। महावीर की जीवनमें निर्लोभता, तटस्थता का भाव ले आयें और यह साधना का यही सन्देश है । काश! हम इस संदेश सोचें कि जो क्षण वर्तमान में है, वह रहने वाला, को चेतना की गहराई में उतारें। टिकने वाला नहीं है। पर्याय नित्य बदलती है ।
यह तार पर यह मारता-महावी अपना नियं
कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गई। कामना, नामना तथा कामभोगों की अति लालसा वाले मानवों की वे इच्छाएँ, आकांक्षाएँ तो तृप्त हो नहीं पाती, अतृप्त होकर भी उनकी दुर्गति होती है।
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ