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'स्वार्थ' और 'परमार्थ' इन दोनों में पर्याप्त जो स्वभाव को एक क्षण भी नहीं छोड़ता। Sill अन्तर है । स्वार्थ जीवन की चादर को कलुषित और परभाव को ग्रहण नहीं करता है, वह मैं हूँ। को कर देता है और परमार्थ उसे उज्ज्वल बनाता है।
जीवन में जब सन्तोष आता है तब मनुष्य की मेरी आत्मा स्वतन्त्र है, शाश्वत है, आनन्द से आशाएँ, तृष्णाएँ समाप्त हो जाती हैं। उसके जीवन परिपूर्ण है, तन, मन और इन्द्रियों से परे है।
में सुख-शान्ति का सागर ठाउँ मारने लगता है।
ज्ञान एक ऐसा शाश्वत प्रकाश है, जिसमें
स्व लिम मानत ने अपने मनावको
जिस मानव ने अपने मन के पात्र को कदाग्रहों का अवलोकन किया जाता है, स्व में ही रमण से, दषित विचारों से, और मेरे तेरे के संघर्षों से किया जाता है, स्व सम्बन्धी जो भ्रान्ति एवं मूढ़ता रिक्त कर दिया है, वह अपने जीवन को प्रकाशहै, उसका निरसन हो जाता है।
मान बना देता है।
ज्ञान के अभाव में जो क्रिया की जाती है उसमें विवेक का प्रकाश नहीं होता।
सागर जिस प्रकार अगाध है, अपार है, मन भी उसी प्रकार अगाध एवं अपार है। उसमें
विचार-लहरों की कोई थाह नहीं है, कामनाओं, __ आत्मा और शरीर तलवार तथा म्यान की तरह पृथक-पृथक अस्तित्व वाले हैं, दोनों के स्वरूप ।
इच्छाओं का कोई पार नहीं है। में कोई साम्य नहीं।
आत्मा सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। वह परम आचार, विचार का क्रियात्मक मूर्त रूप है। जब ज्योति स्वरूप है। जिसने निज स्वरूप को जान विचार में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है तो उसका लिया, एक आत्मा को जान लिया तो सब कुछ असर न होना असम्भव है। ।
जान लिया। । जो ज्ञाता है, द्रष्टा है, पर-भाव से शून्य है, सम्यग्दर्शन आत्मा की एक ज्योतिमय चेतना स्वभाव से पूर्ण है-वह मैं हूँ।
है जो व्यामोह के सघन आवरणों के नीचे दब गई
है । इन आवरणों को हटा देने से ही वह अनन्तआत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त है, शरीरयुक्त जो ज्योति प्रकट हो जायेगी। आत्मा है वह न मूर्त है, न अमूर्त है किन्तु मूर्त और अमूर्त दोनों है।
आत्मा कोटि-कोटि सूर्यों से भी अधिक प्रकाश
मान है। चन्द्रमा से भी अधिक शीतल है, सागर हमारी आत्मा समूचे शरीर में व्याप्त है । जहाँ से भी अधिक गम्भीर है, आकाश से भी अधिक शरीर है, वहाँ आत्मा है, जहाँ आत्मा है वहाँ ज्ञान विराट है । वस्तुतः ये आत्मा के परिमापक पदार्थ ।। है, जहाँ ज्ञान है वहाँ संवेदना है।
___नहीं हैं।
का
ज्ञान और दर्शन मेरा स्वभाव है आवरण मेरा आत्म-तत्व ज्ञान स्वरूप है । आत्मा ज्ञाता है। स्वभाव नहीं है, जो मेरा विभाव नहीं है, वह मैं हूँ। जो कुछ ज्ञान है, वही आत्मा है और जो कुछ ५१८
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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