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शिखर पर आसीन हो सकता है। इस दिशा में सूर्य सत्य यह भी है कि पूर्वोक्त चारों भावनाओं के प्रयोग से ही वर्तमान विकल विश्व सुख-शान्ति पावेगा।
७. सर्वोदय धर्म-तीर्थ का अन्य आधार व्रत धारी होना है। जीवनधारा सुव्यवस्थित रूप से प्रवाहमान हो, इसके लिए अत्यन्त आवश्यक है कि व्यक्ति श्रावक अथवा नागरिक रूप में श्रद्धा-विवेक-क्रिया लिए अणुव्रती बने । वह पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत स्वीकार किये उज्ज्वल जीवन जीने की कला सीखे । 'जिओ और जीने दो' की भावना का ज्वलन्त उदाहरण बने। व्रत-विहीन होकर वर्षाकालीन सरिता सी भोग विलासमयी बाढ़ नहीं लादे अन्यथा अपने साथ अन्य जनों का भी अकल्याण करेगा । वह हिंसा के क्षेत्र में संकल्पी हिंसा का पूर्णतया त्यागी हो और आरम्भी, उद्योगी, विरोधी हिंसा में भी सावधानी का परिचय देता रहे । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का शक्तिशः और व्यक्तिशः पालन अनिवार्यतः हो। वह एक हाथ से जुटावे तो दस हाथ से लुटाने का भाव रखे । महाव्रत को स्वीकार कर साधु, श्रमण बने तो भोग से योग, शरीर से आत्मा, सष्टि से शिव की ओर चलने का सतत सुदृढ़ सत्संकल्प करे । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन करने में अणु भर भी प्रमाद नहीं करे प्रत्युत संयम को ही जीवन समझे । कम से कम लेकर समाज को अधिक से अधिक देने के लिए। सन्नद्ध रहे। मानवीय दैनिक जीवन में वह अपना एक सुस्पष्ट सुभेदक चिह्न अवश्य लगावे, जिससे समग्र समाज उसके पद-चिह्नों पर चलने के लिए अतीव आतुर हो । जीवन के अन्तिम क्षणों में सल्लेखना या समाधिमरण के लिए श्रावक और श्रमण दोनों ही प्रयत्न करें जिससे उन्हें चारों गतियों से मुक्ति मिले ।
८. अप्पा सो परमप्पा यह सर्वोदय : धर्मतीर्थ का अनन्यतम सिद्धान्त है अर्थात् आत्मा सो परमात्मा या नर ही नारायण है । आत्म तत्व की निश्चयात्मक दृष्टि से सभी जीव समान हैं। निगोदराशि और सिद्ध शिला आसीन जीव में आत्मिक दृष्टि से अन्तर नहीं है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है । जैनाचार्यों ने आत्मा के तीन प्रकार स्वीकार किए हैं-(१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा । जो पूर्णतया बहिर्मुखी है, विषय-वासना-भक्त है, धर्म-कर्म से सुदूर है, तो लोकायत सदृश चारुवाक् या चार्वाक है, जो लोक को ही मान्यता देकर, केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानकर अन्यत्र आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, जो देह और आत्मा को एक-विपरीत अन्यथा मानता है वह बहिरात्मा है। यह लोक मांगल्य की आड़ लेकर पुनर्जन्म को नकारता है और आत्मा को भी शरीर सदृश मरणशील मानता है । जो जल में भिन्न कमल सा जीवन जीता है, जो सांसारिक विषयवासनाओं के प्रति विराग-विरक्ति का भाव लिए है, जो लौकिक कार्यों की अपेक्षा धार्मिक कार्यों को अधिक महत्व देता है, जो अपने लिए संसारवर्धक काया-माया-बाल-जाल से बचता है जो व्रताचारी, अणव्रती, महाव्रती बन गया है, जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। जिसकी दृष्टि अन्तर्मुखी है वह अन्तरात्मा । है । जो विषय-वासना और आरम्भ-परिग्रह रहित है तथा ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन है वह तपस्वी
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अन्ते समाहिम रणं चउगइ दुक्खं निवारेई।। बहिरात्मा अन्तरआत्म परमातम जीव त्रिधा है। देहजीव को एक गिने बहिरातम तत्व मुधा है। द्विविध संग बिन शुध उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी । मध्यम अन्तरआतम हैं जे देशवती आगारी । जघन कहे अविरत समदृष्टी तीनों शिव-मगचारी।
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षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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