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________________ साधु आचार्य समन्तभद्र की दृष्टि से प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि परमात्मा बनने का भी पात्र है ।' साधु स्वादु नहीं होता है, मुनि मनमार होता है, यति संसार में विराम/विश्राम नहीं चाहता है, अनगार कहीं . भी घर नहीं बनाता है बल्कि मोह क्षीण करके, निर्ग्रन्थ स्नातक जिनकेवलज्ञानी होता है लेवलज्ञानी नहीं । - अर्हन्त जीवन्मुक्त सकल परमात्मा हैं और सिद्ध निकल परमात्मा है । बहिरात्मा १ से ३ गुणस्थान तक हैं। ४ से १२ तक अन्तरात्मा हैं । १३-१४ तक परमात्मा हैं । सिद्ध गुणस्थानातीत है। ६. सर्वोदय : धर्मतीर्थ-आत्मज्ञान का प्रतिष्ठापक है । आत्मा और ज्ञान अभिन्न है । आत्माS ज्ञाता दृष्टा है, ज्ञानी दर्शक है । आत्मज्ञान ही स्वयं का ज्ञान है । प्रत्येक ज्ञानी द्रव्याहिंसा और भावहिंसा l को पूर्णतया सर्वथा हेय ही मानता है भले वह अपनी दुर्वलता के कारण पूर्णतया हिंसा का त्याग करने में . असमर्थ रहे, पर अपनी शक्ति के अनुसार वह त्याग-तपस्या स्वीकारता है, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और १ तप की आराधना अंगीकार करता है । बहिरात्मा बहिर्मुखी अशुभ भावी होता है । अन्तरात्मा अन्तर्मुखी की बहभाग में शुभ भावी होता है। परमात्मा पूर्णतया शुद्ध भावी ज्ञाता-दृष्टा भावातीत तुल्य होता है। आत्मा जीव की निधि है इसलिए जीव जीवित रहा था, रहा है, रहेगा सही है । बहिरात्मा अन्तरात्मा हो और अन्तरात्मा परमात्मा हो । यही काम्य और ग्राह्य हो। १०. सर्वोदय-धर्म तीर्थ का एक विशिष्ट सिद्धान्त स्वतन्त्रता व समानता है। जैसे पुद्गलजन्य शरीर सभी का पृथक है वैसे ही सभी जीवों की आत्मा भी स्वतन्त्र है, जैसे शरीर के परमाणु स्वतन्त्र समान हैं वैसे ही आत्मा के प्रदेश भी स्वतन्त्र समान है। आत्मा शरीर के आधीन नहीं है और शरीर आत्मा के आधीन नहीं है । यदि आत्मा शरीर के आधीन होता तो कदापि त्रिकाल में भी कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाता और शरीर आत्मा के आधोन होता तो संसार के प्राणियों के समान ही सिद्धों के साथ भी होता । शरीर और आत्मा-पानी और दूध से एक क्षेत्रावगाही होकर मिले भले रहे हों, पर वे एक नहीं पृथक है । प्रत्येक आत्मा प्रत्येक शरीर स्वतन्त्र है, कोई किसी के आधीन नही है । सब आत्माएं समान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं, सभी के प्रदेश बराबर हैं। प्रत्येक आत्मा सूविकसित होकर अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य सम्पन्न अर्हन्त हो सकती है । आत्मा ही नहीं, बल्कि सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ समान रूप से स्वतन्त्रता लिए परिणमनशील है । अपने को पहचानना प्रकारान्तर से अर्हन्त को पहचानना है । आत्मधर्म का चरम विकास होना यानी अर्हन्त (जीवन्मुक्त) और सिद्ध (सर्वदा को मुक्त) होना है। ११. सर्वोदय-धर्मतीर्थ भेद-विज्ञान मूलक है। पुद्गलजन्य शरीर जड़ है, ज्ञानमूलक आत्मा चेतन है । शरीर, शस्त्र से कटता है, अग्नि में जलता है, पानी में गलता है, हवा से सूखता है, पर आत्मा न शस्त्र से कटता है, न आग में जलता है, न पानी में गलता है, न वायु से सूखता है। शरीर रूपरस-गन्ध-स्पर्शमय दृश्य है पर आत्मा अरूप-अरस-अगन्ध-अस्पृश्य अदृश्य है । जो आत्मा है वह शरीर नहीं, और जो शरीर है वंह आत्मा नहीं, गुण-कर्म विभाजन सूर्य प्रकाश-सा सुस्पष्ट है । स्व-पर भेद ASCHEMENEVER १ विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः । ज्ञान ध्यान तपो रक्तः तपस्वी स प्रशस्यते ॥ २ श्री अरहन्त सकल परमातम लोकालोक निहारी । ज्ञान शरीरी विविध कर्ममल वजित सिद्ध महन्ता । | ३ नंनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैन क्लेदयन्त्यापे न शोषयति मारुतः ।। -भगवद्गीता अ.५ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ HORO साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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