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महत्वपूर्ण स्थान मिला है, उनकी धर्म-सभा या समवसरण में नर-नारी, पशु-पक्षी सभी को धर्म-श्रवण कर धारण करने का और आत्मविकास करने का स्वर्ण अवसर मिला था; किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। वस्तु और व्यक्ति स्वातन्त्र्य, पूर्वापर ऊहापोहमयी सुविचारित परम्परा ही वीर-वाणी में अतीत में ग्राह्य हुई, आज ढाई सहस्रवर्ष बाद भी ग्राह्य है और अनागत में भी (अन्य तीर्थकर नहीं होने । तक) बखूबी ग्राह्य रहेगी।
५. सर्वोदय और धर्म-तीर्थ, दोनों परस्पर पूरक हैं। जिस समाज-राष्ट्र-विश्व में सर्वोदय की भावना नहीं है, वह समाज-राष्ट्र-विश्व अनुदार होने से असफल है। जिस समाज-देश-विश्व में धर्मतीर्थ की स्थापना का मनोभाव नहीं है वह समाज-देश-विश्व भी संकुचित अनुदार होने से असफल है। सफलता के लिए आकाश सी विराटता, पृथ्वी सी सहिष्णुता अपेक्षित है। केवल इतना ही नहीं बल्कि दुरंगी दुनियां सी दुहरी ऊहापोहमयी नीति और जीवाजीवतत्वमयी सुचेतना भी चाहिये । देवता में जहाँ वोतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता चाहिये वहाँ शास्त्र में देव-प्रणीत अविरोध पूर्वापर एकरूपता हितग्राहिता होनी चाहिये और गुरु में विषय-वासना से मुक्ति, अयाचकता-आपेक्षता चाहिए और लोकालोक मांगल्य की भावना चाहिए । सर्वोदय-धर्मतीर्थ का सम्मेलन तो गंगा-जमुना के संगम सा सुखद है, दोनों का विरोध और वियोग तो दोनों के लिए घातक है। दोनों के अभाव में तो जीवन मृत्यु का अन्य नाम हो जावेगा।
सर्वोदय-धर्म-तीर्थ-सिद्धान्त ६. सर्वोदय का आधार समानता है और धर्म-तीर्थ भी समानता की घोषणा करता है । जैसे - सर्वोदय के क्षेत्र में व्यक्तिगत भेदभाव को स्थान नहीं है वैसे ही धर्म-तीर्थ-क्षेत्र की परिधि में भी किसी
प्रकार का अलगाव-बदलाव-दुराव नहीं है । ईसा की प्रथम सदी में ही आचार्य प्रवर उमास्वामी ने अपने , अमर ग्रन्थ तत्वार्थ सूत्र या मोक्ष शास्त्र में मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता भावनाओं के निरन्तर चिन्तवन की बात लिखी है। वही बात दसवीं शताब्दी में आचार्य अमितगति ने अपनी भावना बत्तीसी (संस्कृत कविता) के प्रथम श्लोक में प्रकारान्तर से लिपिबद्ध की है तथा पूर्वोक्त चारों भावनाओं के 10 सन्दर्भ को लिए हुए जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादक 'अनेकान्त' ने अपनी अमर कविता या राष्ट्र-प्रार्थना अथवा 'मेरी भावना' में भी आचार्यों की परम्परा का प्रसार और निर्वाह किया है। मंत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता में सर्वोदय की भावना अधिक है या धर्म-तीर्थ की कामना अधिक है ? वह तो विद्वानों के विचारने की वार्ता है, मैं मन्दमति तो इतना ही लिख सकता हूँ कि यदि जीवन कला है तो पूर्वोक्त चारों भावनाओं का आधार लेकर कोई भी शीर्षस्थ सर्वोदयी बन सकता है और धर्म-तीर्थ के
-अ०७ स० ११
१. मैत्री प्रमोद कारुण्यं माध्यस्थानि च सत्व गुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु । २. सत्वेषु मंत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् ।
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्ती, सदा ममात्मा विदधात देवः ।। मैत्री भावजगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे। दीन दुखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा-स्रोत बहे ।। दुर्जन क्रू र कुमार्ग रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्य भाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ।।
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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