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Sil हो, सभी प्राणी परस्पर पर-हित में निरत हों, फलतः दोष जड़-मूलतः नष्ट हों तो समग्र संसार सही अर्थों
में सुखी हो। सभी राज्यों की प्रजाओं का कल्याण हो, पृथ्वीपालक नरेश बलवान और धार्मिक हो, | वारिद समय-समय पर जल-वष्टि करें, इन्द्र सदृश श्रेष्ठ सज्जन पुरुष लोक की व्याधियों का विनाश करें,
क्षग भर के लिए भी लोक-जीवन में न कहीं दुर्भिक्ष हों और न स्तेयवृत्ति । जिनेन्द्र का धर्म-चक्र सभी प्राणियों के लिए सुख में सतत् अभिवृद्धि करे। ये पंक्तियाँ हैं पूजन के परिणाम सी शान्ति पाठ को।
३. यह कहना अथवा लिखना मुझ मन्दमति के लिए सम्भव नहीं कि वर्तमान में सर्वोदय और धर्म-तीर्थ में से किस शब्द का अधिक प्रयोग हो रहा है पर विस्मयमयी वार्ता यह है कि दोनों का अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग होने पर भी न तो सर्वोदयी समाज का सृजन हो रहा और धर्म-तीर्थ ही अपनी संज्ञा सार्थक कर पा रहा है। आज के समाज में समता की सरिता उतनी नहीं बढ़ी है जितनी विषमता को विषधरी बढी है और हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध छायावादी कवि समित्रानन्दन पन्त की 'गूजन' के शब्दों में जग के जन सुख-दुःख से अति पीड़ित हैं, जीवन के सुख-दुःख परस्पर बंट नहीं पा रहे हैं। सबका उदय सर्वोदय है पर सबको समान उन्नति के स्वर्ण अवसर मिल नहीं पा रहे हैं, समाज का प्रत्येक व्यक्ति प्रतिभा-योग्यता के बावजूद भी सर्वोच्च पद पर नियुक्त-प्रतिष्ठित नहीं हो पा रहा है, सभी पूर्ण सुखी
और ज्ञानी बनने में आज भी अक्षम हैं फलतः तथाकथित शब्द सर्वोदय : धर्म-तीर्थ अपने अन्तस्तल में विराट होकर भी बौने बने हैं; वे कह पाते तो मानव-समाज से अवश्य ही यह कहते कि विचारा शब्द क्या करे ? शब्द का अर्थ कोई भी नहीं जानता, भले-भटके कोई शब्द का अर्थ जानता भी तो कोई शब्द के भाव को धारण करना नहीं स्वीकारता, इसलिए व्यक्तिशः आर्थिक अभ्युदय हो रहा है पर औसतन उन्नति नहीं हो पा रही है। स्वार्थ की पूर्ति जितनी हो रही है उतनी परमार्थ की नहीं। संख्यातीत संस्थाएँ भी सर्वोदय : धर्म-तीर्थ को अब तक आगे नहीं बढ़ा पा रही हैं।
४. इसलिए आज के युग में अनिवार्य हो गया कि मौखिक जबानी सर्वोदय : धर्म-तीर्थ शब्द नहीं हो बल्कि मानवीय व्यवहृदय सर्वोदय : धर्मतीर्थ दैनिक जीवन में अवतरित हो तो मनुष्य देवता बने और पृथ्वी स्वर्ग बने । सर्व धर्म समभाव का जैसा सुस्पष्ट सर्वाधिक वर्णन जैनागमों में सहज सुलभ है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। चूंकि समानता और स्वतन्त्रता भी सर्वोदय का मूलभूत आधार है । अतएव जैनधर्म में एक ईश्वर नहीं बल्कि असंख्यात ईश्वर सिद्धों के रूप में सम्मान्य किए गए। सभी आपत्तियों से सुरक्षित, सर्वोदय तीर्थ के प्रतिष्ठापक भगवान महावोर को वाणो में स्वतन्त्रता के साथ समानता को भो
शिवमस्तु सर्व जगतः परहितनिरताः भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः । काले काले च'सम्यग्वर्षतु मेघा व्याधयो यान्तु नाशम् ।। दुभिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके ।
जैनेन्द्र धर्म-चक्र प्रभवतु सततं सर्व सौख्यप्रदायि ।। ३ जग पीड़ित है, अति सुख से ।
मानव-जीवन में पॅट जावे। जग पीड़ित है, अति दुख से ।।
सुख दुख से औ दुख सुख से ॥ ४ इकसिद्ध में सिद्ध अनन्तजान । अपनी अपनी सत्ता प्रमान । ४६०
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियां
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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