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संस्कृति मनुष्यों को ही यह गौरव प्रदान करती है संस्कृति मनुष्य के जीवन को ऐसा सार्थक रूप देने कि वह अपने कल्याण की क्षमता स्वयं ही रखता का महान कार्य भी सम्पादित करती है। है । मनुष्य को यह संस्कृति आत्म-गौरव से दीप्त अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है। मन, वचन और स्वावलम्बी बनाती है। उसे पुरुषार्थी बनाती और काया से किसी जीव का घात न करना है, ईश्वराधीन शिथिल और श्लथ नहीं बनाती। अहिंसा के माध्यम से हमें जैन संस्कृति ने ही यह मनुष्य को किसी के चरणों का दास और दीन सिखाया है। यह तो यहां तक निर्देश करती है कि हीन बनने की प्रेरणा नहीं देती। विशेषता यह भी स्वयं किसी का प्राणघात करना मात्र ही नहीं, है कि इस परुषार्थ का प्रयोग आत्म-विकास के अपित दसरों को ऐसा करने की प्रेरणा देना, उसे लिए सुझाया गया है । आत्मा के उत्कर्ष के लिए
लिए सहायता देना भी हिंसा है । यह भी अनुपयुक्त है । है। राग-द्वेषादि सर्व कषायों का शमन अमोघ उपाय यही क्यों किसी हिंसा का समर्थन करना भी हिंसा के रूप में श्रमण संस्कृति ने ही सुझाया है। श्रम
ही है । यह संस्कृति हिंसा के रंचमात्र प्रभाव को को सार्थक बनाने के लिए इस प्रकार 'शम' अभि
भी निंद्य मानती है। मन में किसी का अहित प्रेत रहता है । सम का सन्देश भी समत्व के रूप
सोचना, वचन से किसी के मन को ठेस पहुँचाने में श्रमण संस्कृति द्वारा ही प्रदान किया गया है।
जैसे कर्म भी हिंसा की परिधि में ले आने वाली यह तात्पर्य भो इस संस्कृति को अत्युच्चासन पर
यह जैन संस्कृति वस्तुतः मनुष्य को देवत्व-सम्पन्न अवस्थित करता है । व्यक्ति अन्य सभी प्राणियों
बनाने में सर्वथा सक्षम है। क्या यह संस्कृति मनुष्य को आत्मवत् ही स्वीकार करे यह समत्व है।
को प्राणघात न करने आदि जैसे निषेधात्मक मनुष्य यह अनुभव करे कि जैसा मैं हूँ वैसे ही अन्य
निर्देश ही देती है ? नहीं, ऐसा नहीं है। यह तो सभी हैं। जिन कारणों से मझे सख अथवा दःख
मनुष्य को संकटापन्न प्राणियों की रक्षा करने की If का अनुभव होता है, वैसा ही अन्य प्राणियों के साथ ही घटित होता है । इस आधार के सहारे मनुष्य
- प्रेरणा भी देती है। विधि-निषेधयुक्त अहिंसा जैन के मन में यह सस्कृति दूसरों के प्रति ऐसे व्यवहार सस्कृति के लिए एक गौरवपूर्ण तत्व है। की प्रेरणा जगाती है, जैसा व्यवहार वह दसरों अनेकान्त दृष्टि भी जैन संस्कृति की अत्यन्त द्वारा अपने प्रति चाहता है । इसके अतिरिक्त अन्य उपयोगी देन है। समाज में अनेक विचारधाराओं सभी को अपने समान समझने के कारण मनष्य का अस्तित्व अति स्वाभाविक है और विभिन्न
स्वयं को अन्यों से उच्च समझने के दर्द से भी बच विचारधाराओं के अनुयायी अपने ही पक्ष में Ajl जाता है और अन्यों से निम्न समझने के हीनत्व से श्रेष्ठता का अनुभव करें-यह भी वहुत स्वाभा
भी बच जाता है । उसके लिए सभी समान हैं-न विक है। ऐसी स्थिति में एक मत वाले अन्य मतों कोई उच्च है न नीच । वर्गविहीन समाजनिर्माण की को हीन दृष्टि से देखने लगते हैं, उनकी वे निन्दा दिशा में ऐसी संस्कृति की महती भूमिका को नकारा करते हैं और उनके दोषों को उजागर करने से नहीं जा सकता। इसी प्रकार समभाव व्यक्ति में उन्हें संतोष का अनुभव होता है। इसी प्रकार वे अहिंसा का व्यापक भाव भी सक्रिय कर देता है । यह अपने मत के प्रति श्रेष्ठ जनधारणा का निर्माण संस्कृति मनुष्य को सिखाती है कि उसे किसी के करना चाहते हैं। यह सारी की सारी प्रवृत्ति प्राणापहरण का कोई अधिकार नहीं है। किसी के दूषित और घातक हो जाती है। इस प्रवृत्ति से मन को कष्ट पहुँचाना भी उसके लिए उपयुक्त ऐक्य खण्डित हो जाता है और समाज अनेक वर्गों नहीं। व्यक्ति इसी प्रकार तो सभी की सुख-शान्ति में विभक्त हो जाता है। इन विभिन्न वर्गों के बीच के लिए सचेष्ट रहता हुआ जी सकता है । श्रमण भीषण संघर्ष की स्थिति रहती है। परिणामतः
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५६३
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