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लिये मानवोचित आदर्श, सद्गुण, व्यवहार और में रही हैं, यथा-वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृलक्षणों की अनिवार्य अपेक्षा रहती है, जो उसे तियाँ । ये पृथक-पृथक सांस्कृतिक धाराएँ रही हैं । अन्य प्राणियों से भिन्न और उच्चतर स्थान प्रदान इस प्रकार से यह भी कथनीय है कि वेद दान के, करते हैं, उसे 'अशरफुल मखलुकात' बनाते हैं। बौद्ध दया के और जिन दमन के प्रतीक हो गये हैं। ___मनुष्य की मेधा क्रमिक रूप से विकसित होती मनोविकारों का दमन कर उन पर विजय स्थापित रही और परिस्थितियाँ भी युगानुयुग परिवर्तित करने वाला जिन है और जिन की संस्कृति ही जैन होती रहीं। तदनुरूप ही संस्कृति के स्वरूप में भी संस्कृति है। इस सूत्र के सहारे जैन संस्कृति के ॥ विकास होता रहा । संस्कृति के इस सतत विकाश- तत्त्वा को समझना सुगम है। शील रूप के कारण उसे किसी काल विशेष की भारतीय संस्कृति में प्रमुखतः दो धाराएँ रही उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं होगा, तथापि जैन हैं जिन्हें ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति के हैं संस्कृति के विषय में यह कथन असंगत न होगा कि नाम से जाना जाता है। ब्राह्मण संस्कृति के आधार यह अतिप्राचीन और अति लोकप्रिय है। मानव वेद और श्रमण संस्कृति के आधार जिनोपदेश रहे मात्र में मानवता जगाने की अद्वितीय क्षमता के हैं। श्रमण संस्कृति निवृत्तिमूलक है, जबकि ब्राह्मण कारण उसकी महत्ता सर्वोपरि है और इसे संस्कृ- संस्कृति प्रवृत्तिमूलक है । यही कारण है कि इन तियों के समूह में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । जैन दोनों संस्कृतियों में यह एक मौलिक अन्तर लक्षित संस्कृति ने अपने स्वरूप को इतनी व्यापकता दी है, होता है कि जहाँ ब्राह्मण संस्कृति में भोग का स्वर ? इतनी उदारता दी है कि अन्यान्य संस्कृतियों को है वहाँ श्रमण संस्कृति में योग और संयम का ही। इससे प्रेरणा लेने का समुचित अवसर मिला। प्राचुर्य है । ब्राह्मण संस्कृति में विस्तार की प्रवृत्ति वस्ततः विश्व संस्कृति के पक्ष में जैन संस्कृति की है और इसके विपरीत श्रमण संस्कृति में संयम मूल्यवान देन रही है।
और अन्तर्दृष्टि की प्रबलता है। ब्राह्मण संस्कृति ____ भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृतियों में अब व्यक्ति को स्वर्गीय सुखों के प्रति लोलुप बनाती है, | भी आदरणीय स्थान है। यह प्राचीनतम है और भोगोन्मुख बनाती है, जबकि श्रमण संस्कृति मोक्षो-हूँ अजस्र रूप से प्रवाहित धारा है। इसका प्रवाह न्मुख और विरक्त बनाती है। यहाँ यह विशेष रूप कभी खण्डित नहीं हुआ। कुछ विद्वानों ने 'भारत' से ध्यातव्य है कि मानव-जीवन का परम लक्ष्य शब्द का विश्लेषण इस प्रकार भी किया है कि भा' मोक्ष की प्राप्ति ही है और लक्ष्य की प्राप्ति में * का अर्थ प्रकाश है और भारत का अर्थ प्रकाश में श्रमण संस्कृति ही सहायक होती है।
बाले जनों के ससदाय से लिया गया है। मानवोचित श्रेष्ठ संस्कारों को स्थापित करने । प्रकाश में रत रहने के संस्कारों का उदय भारतीय वाली जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहा जाना संस्कृति की प्रवृत्ति रही है । इस संस्कार-सम्पन्नता सर्वथा उपयुक्त और सार्थक है । श्रमण शब्द के मूल । के लिए उपनिषदानुसार ३ सूत्र हैं-दया, दान में 'श्रम' 'शम' और 'सम' के तात्पर्यों को स्वीकार और दमन (मन व इन्द्रियों का निग्रह)। किया जा सकता है। यह संस्कृति 'श्रम' प्रतीक संक्षेप में यही भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप द्वारा मनुष्य को उद्यमी बनाती है। इसका सन्देश | कहा जा सकता है। यही भारतीय संस्कृति की है कि मनुष्य स्वयं ही आत्म-निर्माता है। उसका एकरूपात्मकता है, अन्यथा इस देश में इस मौलिक हिताहित किसी अन्य की अनुकम्पा पर नहीं, स्वयं स्वरूप का वहन करती हुई कतिपय अन्य, परस्पर उसी के प्रयत्नों पर आधारित है, वह आत्म निर्माता भिन्न (अन्य प्रसंगों में) संस्कृतियाँ एकाधिक रूप है। आत्म-कल्याण को महत्ता देने वाली श्रमण
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कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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