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यह एक मानवीय दुर्बलता है कि मनुष्य व्रत स्वीकार करने के बाद भी स्खलित हो जाता है, इसलिए भगवान् ने व्रतों के अतिचारों का विश्लेषण करके व्यक्ति को व्रतों के पालन की दिशा में और अधिक जागरूक बना दिया ।
प्रथम अणुव्रत स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिए उस व्रत के पाँच अतिचार ज्ञातव्य हैं, किंतु आचरणीय नहीं हैं । जैसे१. बन्ध - क्रोधवश, त्रस जीवों को गाढ़ बन्धन से बाँधना |
२. वध - निर्दयता से किसी जीव को पीटना । ३. छविच्छेद – कान, नाक आदि अंगोपांगों का छेदन करना ।
इच्छा परिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं
४. अतिभार लादना - भारवाहक मनुष्य, पशु १. क्षेत्र - वास्तु आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना । आदि पर बहुत अधिक भार लादना ।
२. हिरण्य - सुवर्ण
५. भक्त - पान- विच्छेद - अपने आश्रित जीवों के
३. द्विपद - चतुष्पद
आहार- पानी का विच्छेद करना ।
४. धन-धान्य
५. कुप्य
स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के पाँच अतिचार ज्ञातव्य हैं
ये पांचों ही अणुव्रत नैतिक आचार-संहिता के आधार स्तम्भ है । इनके आधार पर अपनी जीवन पद्धति का निर्माण करना ही भ्रष्टाचार की बढ़ती हुई समस्या का सही समाधान है । प्रत्येक युग सत्तारूढ़ व्यक्ति भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए नए-नए विधानों का निर्माण करते हैं । किन्तु जब वे विधान स्वयं विधायकों द्वारा ही तोड़ दिए जाते हैं तब दूसरे व्यक्ति तो उनका पालन करेंगे ही क्यों ?
१. सहसा अभ्याख्यान - सहसा किसी के अनहोने दोष को प्रकट करना ।
२. रहस्य अभ्याख्यान—किसी के मर्म का उद्
घाटन करना ।
३. स्ववदार-मन्त्र-भेद - अपनी स्त्री की गोपनीय बात का प्रकाशन करना ।
४. मृषा उपदेश - मोहन, स्तम्भन, उच्चाटन आदि के लिए झूठे मन्त्र सिखाना ।
५. कूटलेखकरण - झूठा लेखपत्र लिखना । स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के पाँच अतिचार हैं
१. स्नेध - चोर की चुराई हुई वस्तु लेना । २. तस्कर प्रयोग - चोर की सहायता करना । ३. विरुद्ध राज्यातिक्रम- राज्य द्वारा निषिद्ध व्यापार करना ।
४. कूट तौल, कूट माप-कम तौल-माप करना । ५. तत्प्रतिरूपक व्यवहार - अच्छी वस्तु दिखा कर खराब वस्तु देना, मिलावट करना ।
चतुर्थखण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
स्वदार संतोष व्रत के पाँच अतिचार ज्ञातव्य हैं१. इत्वरिक परिगृहीत गमन-अल्प समय के लिए क्रीत स्त्री के साथ भोग भोगना अथवा अपनी अल्पवय वाली स्त्री के साथ भोग करना ।
२ अपरिगृहीत गमन - अपनी अविवाहित स्त्री (वाग्दत्ता ) के साथ भोग भोगना अथवा वेश्या आदि के साथ भोग भोगना ।
३. अनंग कोड़ा - कामविषयक क्रीड़ा करना । ४. पर विवाहकरण - दूसरे के बच्चों का विवाह
कराना ।
५. कामभोग तीव्राभिलाषा - अपनी स्त्री के साथ तीव्र अभिलाषा से भोग भोगना ।
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८० साध्वीरत्न ग्रन्थ
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एक बात यह भी है कि राज्य की दृष्टि में वही कर्म भ्रष्टाचार की कोटि में आता है, जिससे राजकीय स्थितियों में उलझन पैदा होती है। किंतु सच तो यह है कि भ्रष्टाचार कैसा भी क्यों न हो तथा किसी भी वर्ग और परिस्थिति में हो उसका प्रभाव व्यापक ही होता है । भ्रष्टाचार की जड़ों को उखाड़ने के लिए व्यक्ति में नैतिकता के प्रति निष्ठा के भाव पनपाने होंगे, क्योंकि निष्ठा के अभाव में वृत्तियों का संशोधन नहीं हो सकता और
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