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प्रकार का रत्नत्रय ध्यान से ही उपलभ्य है। अतः सम्पूर्ण प्रयत्न करके मुनि को निरन्तर ध्यान का । अभ्यास करना चाहिए । आ. अमृतचन्द्र भी यही कहते हैं। यथार्थ में ध्यान में जब योगी अपने से भिन्न र किसी दूसरे मन्त्रादि पदार्थ का अवलम्बन लेकर अरहन्त आदि को अपने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण का विषय बनाता है तब वह व्यवहार मोक्षमार्ग है और जब केवल अपने आत्मा का अवलम्बन लेकर उसे ही अपने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण का विषय बनाता है तब वह निश्चय मोक्ष-मार्ग है। अतः मोक्ष के
साधनभूत रत्नत्रय-मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए योगी को ध्यान करना बहुत आवश्यक है। GAL ध्यान की दुर्लभता
मनुष्य के चिरन्तन संस्कार उसे विषय-वासनाओं की ओर ही ले जाते हैं और इन संस्कारों की जनिका एवं उद्बोधिका पाँचों इन्द्रियाँ तो हैं ही, मन तो उन्हें ऐसी प्रेरणा देता है कि वे न जाने योग्य स्थान में भी प्रवृत्त हो जाती हैं। फलतः मनुष्य सदा इन्द्रियों और मन का दास बनकर उचित-अनुचित प्रवृत्ति करता है। परिणाम यह होता है कि वह निरन्तर राग-द्वेष की भट्टी में जलता रहता एवं कष्ट उठाता रहता है । आचार्य अमितगति ने ठीक लिखा है कि जीव संयोग के कारण दुःख परम्परा को प्राप्त होता है। अगर वह इस तथ्य को एक बार भी विवेकपूर्वक समझ ले, तो उस संयोग के छोड़ने में उसे एक क्षण भी नहीं लगेगा। तत्त्वज्ञान से क्या असम्भव है ? यह तत्त्वज्ञान श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान ध्यान है। अतः ध्यान के अभ्यास के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण । जब तक उन पर नियन्त्रण न होगा तब तक मनुष्य विषय-वासनाओं में डूबा रहेगा-आसक्त रहेगा और कष्टों को उठाता रहेगा। पर यह तथ्य है कि कष्ट या दुःख किसी को इष्ट नहीं है-सभी सुख और शान्ति चाहते हैं । जब वास्तविक स्थिति यह है तब मनुष्य को सद्गुरुओं के उपदेश से या शास्त्र ज्ञान से उक्त तथ्य को समझकर विषय-वासनाओं में ले जाने वाली इन्द्रियों तथा मन पर नियन्त्रण करना जरूरी है।
उनके नियन्त्रित होने पर मनुष्य अपनी प्रवृत्ति आत्मोन्मुखी अवश्य करेगा, क्योंकि मनुष्य का आत्मा की 1 ओर लगाव होने पर इन्द्रियाँ और मन निविषय हो जाते हैं। अग्नि को ईंधन न मिलने पर वह जैसे बुझ जाती है।
यह सच है कि इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण करना सरल नहीं है, अति दुष्कर है। किन्तु यह भी सच है कि वह असम्भव नहीं है। सामान्य मनुष्य और असामान्य मनुष्य में यही अन्तर है कि जो कार्य सामान्य मनुष्य के लिए कठिन और दुष्कर होता है वही कार्य असामान्य मनुष्य के लिये सम्भव होता है। अतः इन्द्रियों और मन को प्रारम्भ में नियन्त्रित करना कठिन मालूम पड़ता है। पर संकल्प और दृढ़ता के साथ उन पर नियन्त्रण पाने का प्रयास करने पर उन पर विजय पा ली जा सकती है। उसके प्रधान दो उपाय हैं-१. पारमात्मभक्ति और २. शास्त्रज्ञान । परमात्मभक्ति के लिये पंच परमेष्ठी का जप, स्मरण और गुणकीर्तन आवश्यक है। उसे ही अपना शरण (अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम) माना जाय । इससे आत्मा में विचित्र प्रकार की शुद्धि आती है। मन और वाणी निर्मल होते हैं । और उनके निर्मल होते ही आत्मा का झुकाव ध्यान की ओर होता है तथा ध्यान के द्वारा उपर्युक्त
१ निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।
-तत्वार्थ सार २ संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःख परम्परा । तस्मात्संयोग सम्बन्धं त्रिधा सर्व त्यजाम्यहम् ॥
-सामायिक पाठ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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