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________________ 7 जीवन स्वीकार कर भिक्षुणी संघ में प्रविष्ट हो गईं या फिर शीलरक्षा हेतु मृत्यु अपरिहार्य होने की स्थिति में मृत्युवरण कर लिया। आगमिक व्याख्या साहित्य में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता घारिणी आदि कुछ ऐसी स्त्रियों के उल्लेख हैं जिन्होंने अपने सतीत्व अर्थात् शील की रक्षा के लिए देहोत्सर्ग कर दिया । अतः जैनधर्म में सती स्त्री वह नहीं जो पति की मृत्यु पर उसकी चिता में जलकर उसका अनुगमन करती है अपितु वह है जो कठिन परिस्थितियों में अपनी शीलरक्षा का प्रयत्न करती है और अपने शील को खण्डित नहीं होने देती है, चाहे इस हेतु उसे देहोत्सर्ग ही क्यों न A करना पड़े। ARE ASKRRY. सती प्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न सतीप्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न एक बहुचर्चित और ज्वलन्त प्रश्न के रूप में आज भी उपस्थित है। निश्चित ही यह प्रथा पुरुष-प्रधान संस्कृति का एक अभिशप्त-परिणाम है । यद्यपि इतिहास के कुछ विद्वान, इस प्रथा के प्रचलन का कारण मुस्लिमों के आक्रमणों के फलस्वरूप नारी में उत्पन्न असुरक्षा की भावना एवं उसके शील-भंग हेतु बलात्कार की प्रवृत्ति को मानते हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में इस प्रथा के बीज और प्रकारान्तर से उसकी उपस्थिति के प्रमाण हमें अति प्राचीनकाल से ही मिलते हैं । सती प्रथा के मुख्यतः दो रूप माने जा सकते हैं, प्रथम रूप जो इस प्रथा का वीभत्स रूप है इसमें नारी को उसकी इच्छा के विपरीत पति के शव के साथ मत्यूवरण को विवश किया जाता है। दूसरा रूप वह है जिसमें पति की मृत्यु पर भावुकतावश स्त्री स्वेच्छा से पति के प्रति अपने अनन्य प्रेम के कारण मृत्यु का वरण करती है। कभी-कभी वह इसलिए भी पति की चिता पर अपना देहात्सर्ग कर 30 देती है कि भावी जन्म में उसे पुनः उसी पति की प्राप्ति होगी। जैनाचार्यों ने सती-प्रथा के इन रूपों को उचित नहीं माना है। किन्तु इन रूपों से भिन्न एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने उचित माना है जिसमें स्त्री-मात्र अपने शील की रक्षा के लिए पति के जीवित रहते हए या पति की मत्यु के उपरान्त मृत्यु का वरण कर देहोत्सर्ग कर देती है। उपर्युक्त स्थितियों में जहाँ तक पति के स्वर्गवास के पश्चात् उसकी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मात्र इस विचार से कि परलोक में वह उसे उपलब्ध होगी उसके साथ दफना देने या जला देने की प्रथा का प्रश्न है, यह अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। मिस्र में भी इस प्रथा के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, यह पुरुष-प्रधान संस्कृति का सर्वाधिक घृणित रूप था, जिसमें स्त्री मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु थी और उसके उपभोग की अन्य वस्तुओं के समान उसे भी उसके साथ दफनाना आवश्यक माना जाता था। जहां तक जैनधर्म और उसके साहित्य का प्रश्न है, हमें ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं है, जहाँ इस प्रथा का उल्लेख और इसे अनुमोदन प्राप्त हो। यद्यपि जैनकथा साहित्य में ऐसे उल्लेख अवश्य मिलते हैं, जिसमें एक भव के पति-पत्नी अनेक भवों तक पति-पत्नी के रूप में एक दूसरों को उपलब्ध होते रहे हैं, किन्तु किसी भी घटना में ऐसा उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला, जहाँ मात्र इसी * प्रयोजन से स्त्री के द्वारा मृत्युवरण किया गया हो और जिसका जैनाचार्यों ने अनुमोदन किया हो । अतः सतीप्रथा का यह रूप जैनधर्म में कभी मान्य नहीं रहा । १ १ आवश्यकचूर्णि भाग १ पृ. ३२० २ देखें-(अ) हिन्दूधर्म कोश पृ. ६४६ (ब) धर्मशास्त्र का इतिहास (डा० काणे) भाग २ पृ. ३४८ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ ४६६ COPEG ( साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Par Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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