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चिन्तन सूत्र
१. सुख और दुख
मध्याह्न का समय था। मैं स्वाध्याय, ध्यान और चिंतन में तल्लीन थी । मैं जहाँ पर बैठी हुई थी। उसके सामने ही एक सद्गृहस्थ का मकान था । यकायक मेरी दृष्टि उधर गई। मैंने देखा कि पोस्टमेन डाक वितरण करता हआ, उसके द्वार पर रुका। उसने द्वार खटखटाया। घर की मालकिन ने द्वार खोला, पोस्ट-मेन ने उसके हाथों में बीस हजार रुपये का मनीआर्डर थमाया । मालकिन बीस हजार रुपये लेकर प्रसन्नता से झूम उठी । पोस्टमेन को चाय पिलाकर मालकिन ने विदा किया।
प्रतिदिन की तरह उसी स्थान पर बैठकर जब मैं ध्यान और स्वाध्याय से निवृत्त हुई तब पोस्टमेन की आवाज से मेरा ध्यान भंग हो गया। मैंने देखा-पोस्टमेन आज मनीआर्डर नहीं लेकर आया है। वह तो वी. पी. लेकर आया है । जिस वी. पी. को मालकिन ने पैसा देकर छुड़वा लिया।
मैं चिन्तन करने लगी-पोस्टमेन हमेशा मनीआर्डर हो नहीं लाता। कभी वी. पी. लाता है और कभी मनीआर्डर । पर दोनों ही स्थिति में घर की मालकिन के चेहरे पर किसी प्रकार की शिकायत नहीं है । मनीआर्डर लेने में भी प्रसन्न है तो वी. पी. लेने में भी। हमारे जीवन में भी कभी सुख का मनीआर्डर आता है तो कभी दुख की वी. पी. भी आती है। हम सुख का मनीआर्डर लेने में खुश हैं पर दुख की वी. पी. लेने से कतराते हैं। पर साधक वह है जो सुख और दुख की दोनों ही स्थितियों में सम रहता है ।
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सप्तम खण्ड: विचार-मन्थन
(साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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