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जीवात्मा में, इस आधिपत्य का कुछ न कुछ तर- में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर 'हार' तम भाव रहता ही है, जिससे इन सबकी संसार- मानकर अपनी मूल-स्थिति में आ जाती हैं। ऐसी स्थिति में विभिन्नता आ जाना, सहज हो जाता है। आत्माएँ प्रयत्न करने पर भी राग-द्वेष पर विजय किसी जीवात्मा पर 'मोह' का प्रगाढ़ प्रभाव होता प्राप्त नहीं कर पातीं। अनेकों आत्माएँ ऐसी भी है, तो किसी में उससे कम, किसी में उससे भी कम होती हैं, जो न तो हार खाकर पीछे हटती हैं, और, होता है। जैसे, किसी पहाड़ी नदी में, बड़े-छोटे न ही 'जय' लाभ कर पाती हैं, तथापि, इस आध्यातमाम पत्थर, ऊपर से नीचे की ओर, जल प्रवाह त्मिक युद्ध में चिरकाल तक डटी रहती हैं। किन्तु के साथ लुढ़कते रहते हैं, और वे लुढ़कते, टकराते कोई-कोई आत्माएँ, ऐसी भी होती हैं, जो अपनी हुए गोल, चिकनी या अन्य अनेकों प्रकार की आकृ- शक्तियों का यथोचित प्रयोग करके आध्यात्मिक तियाँ प्राप्त करते रहते हैं । नदी प्रवाह में लुढ़कना, युद्ध में विजय का वरण का लेती हैं। मोह की टकराना, उनकी समान स्थिति का द्योतन करता दुर्भेद्य-प्रन्थि को भेद कर, उसे लांघ जाती हैं । जिन
है, किन्तु उनके लुढ़कने-टकराने से बनी अलग-अलग आत्म-परिणामों से ऐसा सम्भव हो जाता है, उसे - आकृतियाँ, उनमें विभिन्नता-विषमता की प्रतीक 'अपूर्वकरण' कहते हैं। होती हैं।
__अपूर्वकरण रूप परिणाम से राग-द्वेष की गांठ किन्तु, इन जीवात्माओं पर, जाने-अनजाने में, टट जाने पर, जीव के परिणाम अधिक शुद्ध होने 25 या अन्य किसी प्रकार से, मोह का प्रभाव जब कम लग जाते हैं। ये परिणाम, 'अनिवत्तिकरण' रूप 2ी होने लगता है, तब, वह अपने तीव्रतम राग- होते हैं। इनसे राग-द्वेष की अति तीव्रता का उन्मू30 द्वष आदि परिणामों को भी मंद' कर लेती हैं। लन हो जाता है, जिससे दर्शनमोह पर 'जय' लाभ
जिससे उसमें शनैः-शनै, एक ऐसा आत्मबल प्रगट करना सहज बन जाता है। दर्शनमोह पर विजय होने लगता है, जो उसके मोह को छिन्न-भिन्न करने प्राप्त कर लेने पर, अनादिकाल से चली आ रही का कारण बनता है। जैन दार्शनिक शब्दावली में परिभ्रमण रूप संसारी अवस्था को नष्ट करने का इस स्थिति को 'यथाप्रवृत्तकरण' कहते हैं। यथा- अवसर प्राप्त हो गया, मान लिया जाता है । इस प्रवृत्तकरण-बाली आत्माएँ, मोह की सघन-ग्रन्थि स्थिति को, जन-शास्त्रों की भाषा में 'अन्तरात्मभाव' तक पहँच तो जाती हैं, किन्तु उसे भेद पाने में समर्थ कह सकते हैं। क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके, - नहीं बन पाती हैं। इस दृष्टि से इस स्थिति को विकासोन्मुख आत्मा, अपने अन्तस् में विद्यमान शुद्ध 'ग्रन्थिदेश-प्राप्ति' भी कहते हैं। ग्रन्थि-देश की प्राप्ति परमात्मभाव को देखने लगता है हो जाने से 'ग्रंथि भेदन' का मार्ग प्रशस्त बन जाता यथार्थ आध्यात्मिक दृष्टि (आत्म
दृष्टि) होने के कारण 'विपर्यास'- रहित होती है। माना ___ग्रन्थि भेदने का कार्य बड़ा विषम, दुष्कर है। जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावती में इसी को एक ओर तो राग-द्वेष अपने पूर्ण-बल का प्रयोग 'सम्यक्त्व' कहा गया है। करते हैं, दूसरी ओर, विकासोन्मुख आत्मा भी उनकी गुणस्थानों के नाम और क्रम-संसारी दशा में
शक्ति को क्षीण-निर्बल बनाने के लिए, अपनी वीर्य- आत्मा अज्ञान की प्रगाढ़ता के कारण, निकृष्ट * शक्ति का प्रयोग करती है। इस आध्यात्मिक-युद्ध अवस्था में रहता है, यह निर्विवाद है। किन्तु, इस
में, कभी एक तो कभी दूसरा, 'जय' लाभ करता अवस्था में भी अपनी स्वाभाविक चेतना 'चारित्र' है । अनेकों आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो प्रायः आदि गुणों के विकास के कारण प्रगति की ओर ग्रन्थि-भेद करने लायक बल प्रकट करके भी, अन्त उन्मुख होने के लिये आत्मा लालायित रहती है, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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