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________________ මැලියම්ට බුලම මම ඉදිමුම CL तथा शनैः-शनैः इन शक्तियों के विकास के अनुसार वैसे ही 'स्थिरता' की मात्रा भी वृद्धिंगत होती जातो STI उत्क्रांति करती हुई विकास की चरम सीमा-पूर्णता है और अन्ततः चरम-स्थिति तक पहुंचती है । इसी Ke प्राप्त करती है। प्रथम निकृष्ट-अवस्था से निकल दृष्टि से गुणस्थानों का उक्तक्रम निर्धारित कर विकास की अन्तिम भूमिका को प्राप्त कर लेना किया है। ही आत्मा का परमसाध्य है, और उसी में उसके 'दर्शन' और 'चारित्र' शक्ति की विशुद्धि की पुरुषार्थ की सफलता है। 'वृद्धि' एवं 'ह्रास', तत्तत शक्तियों के प्रतिबन्धक ____ इस 'परमसाध्य' की सिद्धि होने तक, आत्मा संस्कारों की न्यूनाधिकता अथवा तीव्रता मन्दता पर का को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, अनेकों पर अवलम्बित है । इन प्रतिबंधक संस्कारों को चार क्रमिक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है । इन विभागों में विभाजित किया जा सकता हैअवस्थाओं की श्रेणियों को 'उत्क्रांति मार्ग' 'विकास १. 'दर्शनमोह' और 'अनन्तानुबन्धी कषाय'क्रम' और जैनशास्त्रों की भाषा में 'गुणस्थान यह दर्शन शक्ति का प्रतिबन्धक है। शेष तीन||| क्रम' कहते हैं। इस क्रम की विभिन्न अवस्थाओं विभाग. चारित्र शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। को चौदह भागों में संक्षेपतः विभाजित कर दिया २. अप्रत्याख्यानावरण कषाय-यह प्रतिबंधक, गया है । इसलिये, इसे 'चतुर्दश गुणस्थान' भी कहा 'एकदेश चारित्र' का भी आंशिक विकास नहीं होने जाता है । इनके नाम एवं क्रम इस प्रकार हैं : देता। १. मिथ्यात्व, २. सास्वादन (सासादन), ३. मिश्र (सम्यगमिथ्यादृष्टि) ४. अविरतसम्यग्दृष्टि, ३. प्रत्याख्यानावरण कषाय-यह प्रतिबन्धक, 0 'सर्वविरति' रूप चारित्र शक्ति के विकास में बाधक ५. देशविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८.निवत्ति (अपूर्वकरण) 8. अनिवत्तिबादर सम्प बनता है। राय, १०. सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशांतमोह १२. ४. संज्वलन कषाय-चारित्रशक्ति का विकास / क्षीणमोह, १३. सयोगिकेवली, १४. अयोगिकेवली। हो जाने पर भी उसकी 'शुद्धता' या 'स्थिरता' में US अंतराय उपस्थित करने में यह प्रतिबन्धक निमित्त ___ उक्त चौदह गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा बनता है। दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा, अर्थात् पूर्व-पूर्व प्रथम तीन गुणस्थानों में, पहले प्रतिबन्धक की वर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थानों ) में विकास की मात्रा अधिक रहती है। विकास की प्रबलता रहता है। जिससे 'दर्शन' और 'चारित्र इस न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरता की शक्ति का विकास नहीं हो पाता। किन्तु, चतुर्थ । न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है, और इस स्थिरता आदि गुणस्थानों में, इन प्रतिबन्धक संस्कारों की की तर-तमता 'दर्शन' एवं 'चारित्र' शक्ति की __ मन्दता हो जाती है, जिससे आत्मशक्तियों के विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। शुद्धि के तार-तम्य पर आधारित है । दर्शन-शक्ति का जितना विकास होगा उतनी ही अधिक निर्मलता चतुर्थ गुणस्थान में 'दर्शनमोह' और 'अनन्ताव विकास उसका होगा । दर्शन-शक्ति के विकास के नुबन्धी' संस्कारों की प्रबलता नहीं रह जाती। अनन्तर चारित्र शक्ति के विकास का क्रम आता किन्तु, चारित्र शक्ति के आवरणभूत संस्कारों का है । जितना अधिक चारित्र शक्ति का विकास होगा वेग अवश्य रहता है। इनमें से 'अप्रत्याख्यानाउतना ही उतना 'क्षमा' 'इन्द्रिय जय' आदि चारित्र वरण' कषाय के संस्कार का वेग चौथे गुणस्थान गुणों का विकास होता जाता है। 'दर्शन' और से आगे नहीं रहता, जिससे पंचम गुणस्थान में 'चारित्र' शक्ति की विशुद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे- चारित्रिक शक्ति का प्राथमिक विकास होता है। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन .. (C) 600 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Form.ivate a personalitice-Only www.jainelibrary.org २५६
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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