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है तथा द्वेष अप्रीति से । ये दोनों ही मोह- प्रसूत अवस्थाएँ हैं । साधक यह दृष्टि में रखते हुए गहराई से विचार करे कि इनमें मुझे दृढ़ता से डटकर, अत्यधिक रूप में कौन पीड़ित कर रहा है ? यह समझता हुआ उन दोषों के स्वरूप, परिणाम, विपाक आदि पर एकान्त में एकाग्र मन से भली-भाँति चिन्तन करें। 1
यह चिन्तन की अन्तःस्पर्शी सूक्ष्म प्रक्रिया है, जो साधक को शक्ति, अन्तः स्फूर्ति प्रदान करती है ।
आगे उन्होंने प्रत्येक दोष के प्रतिपक्षी भावों पर गहराई से सोचते हुए दोष-मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया है ।"
समग्र चिन्तन, चर्या एवं अभ्यास - ये सब शाश्वत जैन सिद्धान्तों की धुरी पर टिके रहें, अतएव उन्होंने प्रसंगोपात्त रूप में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य का संक्ष ेप में तात्त्विक शैली में निरूपण किया है, ताकि साधक की मनोभूमि सत्योन्मुख दृढ़ता से परिपोषित रहें | 3
आहार-शुद्धि पर प्रकाश डालते हुए ग्रन्थकार गृहत्यागी साधकों को, जिनका जीवन भिक्षाचर्या पर आधृत है, जो समझाया है, वह बड़ा बोधप्रद है । उन्होंने भिक्षा को ज्ञान-लेप से उपमित किया है । फोड़े पर, उसे मिटाने हेतु जैसे किसी दवा का लेप किया जाता है, उसी प्रकार क्षुधा, तृषा आदि मिटाने हेतु भिक्षा ग्रहण की जाती है, दवा कितनी ही कीमती हो, फोड़े पर उतनी ही लगायी जाती है, जितनी आवश्यक हो । उसी प्रकार भिक्षा में प्राप्त हो रहे खाद्य, पेय आदि पदार्थ कितने ही सुस्वादु एवं सरस क्यों न हों, वे अनासक्त भाव से उतने ही स्वीकार किये जाएँ, जितनी आवश्यकता हो । ऐसा न करने पर भिक्षा सदोष हो जाती है ।
१. योगशतक ५६ - ६० ।
३. योगशतक ७२-७३ ।
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कल
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ज्यों-ज्यों योगांगों की सिद्धि होती जाती है, योगी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती जाती हैं, जिन्हें पतंजलि ने विभूतियाँ कहा है, बोद्ध परम्परा में जो अभिज्ञाएँ कही गयी हैं, जैन परम्परा में वे लब्धियों के नाम से अभिहित हुई हैं । ग्रन्थकार मे ८३, ८४, ८५ गाथाओं में संक्षेप में रत्न आदि, अणिमा आदि आमोसहि (आमोषधि) आदि लब्धियों की ओर संकेत किया है ।
ऐसा माना जाता है, जिस योगी को आमोसहि सिद्ध हो जाती है, उसके स्पर्श मात्र से रोग दूर हो जाते हैं ।
योग-साधना के सार रूप में ग्रन्थकार ने मनोभाव के वैशिष्ट्य की विशेष रूप से चर्चा की है । उन्होंने बताया है कि कायिक क्रिया द्वारा - मात्र देहाति बाह्य तप द्वारा नष्ट हुए दोष मण्डूक चूर्ण के समान हैं । वे ही दोष यदि भावना द्वारा, शुद्ध अन्तवृत्ति या मानसिक परिशुद्धि द्वारा क्षीण किये गये हों तो मण्डूक- भस्म के समान हैं ।
मण्डूक- चूर्ण तथा मण्डूक-भस्म का उदाहरण कायिक क्रिया एवं भावनानुगत क्रिया का भेद स्पष्ट करने के लिए प्राचीन दार्शनिक साहित्य में प्रयोग में आता रहा है । ऐसा माना जाता है कि मेंढक के शरीर के टुकड़े-२ हो जाएँ तो भी नई वर्षा का जल गिरते ही उसके शरीर के वे अंग परस्पर मिलकर सजीव मेंढ़क के रूप में परिणत हो जाते तो फिर चाहे कितनी ही वर्षा हो, वह पुनः सजीव हैं। यदि मेंढ़क का शरीर जलकर राख हो जाए नहीं होता ।
योगसूत्र के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने अपनी टीका ( तत्ववैशारदी) में इस उदाहरण का उल्लेख किया है ।
ग्रन्थकार ने मनः शुद्धि या मनोजय पर बड़ा जोर
२. योगशतक ६७-७० ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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