________________
फिर तीन, फिर चार इस प्रकार धीरे-धीरे आगे आयु को बढ़ाने वाला है । जैन परम्परा में उपवास बढ़कर, ज्यों-ज्यों तप करने की शक्ति बढती जाये, अनशन तप के दो मुख्य प्रकार बतलाये गये हैंत्यों-त्यों छहों प्रकार के बाह्य तप सिद्ध करना एक स्वल्प समय के अनशन का और दूसरा जीवन KC चाहिए, अन्तिम संस्तारक तक पहुँचना चाहिए। भर के अनशन का। इन दोनों के अनेक उपभेद हैं। इस विधान में सतत् शब्द का हेतु पूर्वक व्यवहार सामान्य उपवास चाहे कितनी संख्या के हों, वे किया है। अनेक वैज्ञानिकों ने प्रयोगों के द्वारा स्वल्प समय वाले कहे जाते हैं और जीवन भर का सिद्ध किया है। इसमें प्रमुख डॉ० एडवर्ड हुकर अनशन संस्तारक कहा जाता है। मन को बिना AT ने अनेक प्रयोगों के पश्चात अपना अभिमत प्रकट ग्लान किये, सद्बुद्धि से, कर्मबन्धन तोड़ने के उत्साह किया है कि- उपवास से मानसिक बल बिलकूल से जीवन भर का अनशन ग्रहण करना, उल्लासनष्ट नहीं होता। कारण कि मस्तिष्क का पोषण पूर्वक मृत्यु को आलिंगन करने का कार्य है। यह करने वाला तत्व मस्तिष्क में ही उत्पन्न होता है। मन की परम उच्च दशा है और इससे इस तप का उसका पोषण करने के लिए शरीर के और किसी अन्तिम प्रकार माना जाता है। भाग की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसके लिए अन्न आगे कहा गया है यदि पहले समग्र पूर्ण उपवास की भी आवश्यकता नहीं है, कारण कि वह स्वतः कठिन प्रतीत हों और इसके कारण चाहे कोई ऊनोअपना पोषण करता है और अपना काम नियमित दरी तप करे, परन्तु जिन्होंने उपवास करने की रूप में किये जाता है।
- शक्ति को विकसित किया है, उन्हें ऊनोदरी तप, से जीवन की समस्त शक्तियों का उद्भव मस्तिष्क साधारण उपवास से कठिन प्रतीत होता है और 7 में ही होता है। जब मस्तिष्क काम करने से थक ऊनोदरी तप को जिसे विद्वानों ने उपवास के बाद
जाता है, तब उसकी थकान भोजन से दूर नहीं स्थान दिया है वह उत्तरोत्तर बढ़ती हुई कठिनता NI होती, विश्राम से होती है। निद्रा का विश्राम, का विचार करके ही दिया जाता है। उपवास में
मस्तिष्क का उत्तमता से पोषण करता है और दिन भूख मर जाती है और इसमें ऊनोदरी के समान में किये हुए परिश्रम से विगलित हुए शरीर में- परीषह नहीं सहन करना पड़ता । एप्टन सिंक लेयर रात्रि के विश्राम के कारण प्रातःकाल ताजगी नामक वैज्ञानिक ने प्रतिदिन एक छोटा फल खाकर और प्रसन्नता उत्पन्न हो जाती है।
कई दिनों तक ऊनोदरी करने का निश्चय किया जब मनुष्य मानसिक चिन्ता या राग-द्वषादि था, परन्तु इससे उपवास से भी अधिक कष्ट मालूम विकारों से घिरा रहता है तब उसकी भूख सबसे होने लगा और इससे उन्होंने फल खाना छोड़कर पहले नष्ट हो जाती है। और शरीर में जब कोई पूर्ण उपवास करना ही पसन्द किया। कहा है
रोग-विकार उत्पन्न हो जाता है, तब भी भूख मर कषाय विषयाहार त्यागो यत्र विधोयते । 0) जाती है। भूख का मर जाना, रोग या विकार का उपवासः स विज्ञेयः शेषःलङ घनक SN चिह्न है, मानव की प्रकृति का संघटन कुछ ऐसा है अर्थात् जिस उपवासादि में कषाय, विषय और IKE
कि रोग या विकार को मिटाने के लिए ही भूख का आहार का त्याग किया जाय, उसे उपवास समझना । ॐ नाश या उपवास, उपचार के लिए निर्मित हुए हैं। चाहिए, शेष लंघन है। है। इसी कारण आयुर्वेद विज्ञान ग्रन्थों में भी स्पष्ट कहा व्रत उपवासों से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का
गया है कि शरीर मन और आत्मा की शुद्धि करने विकास सम्भव है। इनसे किसी प्रकार की हानि वाला उपवास रूपी तप एक बड़ो दिव्योषधि है, होने की सम्भावना नहीं है ।। १ कर्तव्य कौमुदी [खण्ड १-२] पृष्ठ ४८६, ४८७, ४८८, ४८६, ४६०, ४६१ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
YNXEA 52 VE
Ca..
038
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
Jaileducation International
Sr Private & Personal use only
www.jaintenary.org