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न जातु कामः कामानामुपभोगेन श्याम्यति ।
हविषा कृष्णवर्मेव पुनरेवाभिवर्धते । अर्थात् कामनाओं की तुष्टि से कामनाएँ शान्त नहीं हो जातीं परन्तु और भी बढ़ती हैं, जैसे कि अग्नि में हवि (घृत आदि) डालने से अग्नि शान्त नहीं होती और भी बढ़ती है । मानव प्रकृति के सम्बन्ध में यही बात उत्तराध्ययन सूत्र में कही गई है
कसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणा वि न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ।। जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निटि ठयं ।।
-अध्याय ८ गाथा १६-१७ अर्थात् मानव की तृष्णा बड़ी दुष्पूर है । धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि एक G) - व्यक्ति को दे दिया जाए, तब भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं हो सकता। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों म लोभ बढता है । इस प्रकार लाभ से लोभ निरन्तर बढता ही जाता है। दो माशा सोने की अभिलाषा ॥K
रने वाला करोडों से भी सन्तष्ट नहीं हो पाता । किसी की अनन्त तष्णाएँ दूसरे व्यक्ति की मूल आव- I श्यकताओं का भी हनन करती हैं। उत्पीड़ित व्यक्ति भी आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करने के लिए कभी र न कभी जाग ही उठता है और इस प्रकार द्वन्द्व की शुरुआत होती है, वर्ग-संघर्ष पनपता है, प्रकृति का शोषण किया जाता है, निरीह प्राणि-जगत को हटाकर मनुष्यों के लिए अधिक सुविधाएँ जुटाई जाती हैं, G जंगल काट कर खेती के लिए जमीन उपलब्ध की जाती है और फरनीचर, वाहन, ईंधन तथा अन्य इसी प्रकार के मनुष्यों के उपभोगार्थ लकड़ी उपलब्ध की जाती है। दूसरी ओर जंगल के स्थान पर बने खेत तथा उद्यान भी अतिशीघ्र आवासीय, वाणिज्यीय तथा औद्योगिक प्रयोजन हेतु अधिग्रहीत कर लिए जाते हैं । मनुष्य की अनन्त तृष्णा ने खनिज सम्पदा का दोहन करने के लिए पर्वतों को पोला कर दिया है, आर्द्र हवाओं को शुष्कता में परिणत करने के लिए पर्वतीय अर्गलाओं को खोल दिया है, जिससे कि मनुष्य अपने वाहनों के साथ प्रकृति को रौंद सके । मनुष्य की सौन्दर्य भावना नष्ट हो रही है। वह प्रकृति को अपने अनछुए व अक्षत रूप में देखना ही नहीं चाहता। उसकी आदत तो सूर्य के प्रकाश को बिजली के बल्वों में, स्वच्छन्द हवा को छत में लगे पंखों में, प्रकृति के अनहद नाद को टेप किए हुए रेकार्डों में तथा झरने के स्वच्छ जल को नल की टोंटी में से निकलती हई क्षीण धारा में देखने का आदो हो गया है।
मनुष्य को चिन्तन को शक्ति मिली है । इसी कारण वह प्राचीन अनुभवों को संचित रखर सकता है, उनमें समय-समय पर परिवर्तन तथा संशोधन कर सकता है, अन्य अवसरों पर उनका लाभकारी उपयोग कर सकता है, नई कल्पनाएँ कर सकता है, प्राकल्प निर्माण, प्राकल्प परीक्षण, विश्लेषण, संश्लेषण तथा सामान्यीकरण की मानसिक क्रियाओं द्वारा नई खीजें कर सकता है तथा प्रकृति को समृद्ध करने या विनष्ट करने के उपाय ईजाद कर सकता है। मन की शक्ति ने मनुष्य को अतुल शक्ति प्रदान कर दी है।
जब जब मनुष्य अपनी बौद्धिक शक्ति का उपयोग, उपभोगों को बढ़ाने में लगाता है, तब तब भोगवादी संस्कृति पनपती है, प्रकृति का विध्वंस होता है, सृष्टि का सन्तुलन बिगड़ता है और इस षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
४४३ 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Ser Private Personallllse Only
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