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सतीजी के पास पहुँच जाती थी। जिस परिवेश में व्यक्ति रहता है, उसका प्रभाव उसके जीवन पर ॥ अवश्य पड़ता है । और उसके अनुरूप जीवन बनने लगता है/बन जाता है। जैसा परिवेश होगा वैसा !
जीवन होगा। बालिका नजर का परिवेश धामिक था, उसके अनुरूप उस पर प्रभाव पड़ रहा था। सतीजी के सम्पर्क में आने से 'नजर' ने भी त्यागमय भावना के कारण इन छोटी-सी अवस्था में रात्रिभोजन नहीं करना, कच्चा पानी नहीं पीना आदि के त्याग कर लिए। साथ ही सामायिक, प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल आदि सीखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार नजर वैराग्य पथ की ओर अग्रसर रही थी।
वैराग्योत्पत्ति के कारण-स्थानांग सूत्र में वैराग्य के दस कारण इस प्रकार बताए गए हैं(१) छन्दा प्रव्रज्या-अपनी अथवा दूसरों की इच्छा से ली जाने वालो दीक्षा। (२) रोषा प्रव्रज्या-रोष से ली जाने वाली दीक्षा ।
परिद्य ना प्रव्रज्या-दरिद्रता से ली जाने वाली दीक्षा । गरीबी से घबराकर दीक्षा लेना। (४) स्वप्ना प्रव्रज्या-स्वप्न देखने से ली जाने वालो या स्वप्न में ली जाने वाली दोक्षा। (५) प्रतिश्रु ता प्रव्रज्या-पहले से की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली दीक्षा । (६) स्मारणिका प्रव्रज्या-पूर्व जन्मों का स्मरण होने पर ली जाने वाली दीक्षा। (७) रोगिणिका प्रव्रज्या-रोग के हो जाने पर ली जाने वाली दीक्षा । (८) अनाहता प्रव्रज्या-अनादर होने पर ली जाने वाली दीक्षा । (8) देवसंज्ञप्ति प्रव्रज्या-देव के द्वारा प्रतिबुद्ध करने पर ली जाने वाली दीक्षा । (१०) वत्सानुबन्धिका प्रव्रज्या-दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली जाने वाली दीक्षा। एक जैनाचार्य ने वैराग्योत्पत्ति के तीन कारण भी बताये हैं । ये इस प्रकार हैं
(१) दुःखगभित नैराग्य-मानव जीवन में सुख-दुःख तो आते रहते हैं । शुभ कर्मों के उदय से सुख और अशुभ कर्मों क उदय से दुःखों का आगमन होता है । दुःखों से, पीड़ा से अथवा संकट से घबरा ON कर जो व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करता है, उसका वैराग्य दुःखभित वैराग्य कहलाता है । जब दुःख समाप्त
हो जाता है तो सृख आ जाता है, व्यक्ति दुःख को भूल जाता है और फिर आनन्दपूर्वक रहने लगता है। इसी जब दुःख का कारण दूर हो जाता है तो इस प्रकार का वैराग्य भाव भी समाप्त हो सकता है । इस कारण दुःखगर्भित वैराग्य को स्थायी नहीं माना जाता है।
(२) मोहभित नैराग्य-माता-पिता, पुत्र, परिजनों के वियोग होने पर जो विरक्त भावली उत्पन्न होते हैं, वह मोहगभित वैराग्य कहलाता है। व्यक्ति अपने जीवन में सूनेपन का अनुभव करता है। मृत्यु की इच्छा करता है, मृत्यु न होने की स्थिति में संसार छोड़कर साधु बन जाता है। मोहवश व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करता है । मोह की डोरी को तोड़ना सरल कार्य नहीं है। फिर भी यह वैराग्य भाव न तो सामान्य है न श्रेष्ठ । इसे मध्यम श्रेणी का वैराग्य कहा जा सकता है।
(३) ज्ञानभित नैराग्य-जन्म-जन्मान्तरों के शुभ कर्मोदय से,गुरु के उपदेशों के कारण, अध्ययन से संसार के प्रति जो विरक्ति होती है, उसे ज्ञानभित वैराग्य कहा जाता है । वैराग्य का यह कारण श्रेष्ठ भी है और स्थायी भी।
जैनागमों का अध्ययन करने के पश्चात् हमें यह विदित होता है कि विशुद्ध वैराग्योत्पत्ति के दो कारण हैं । यथा१२६
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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