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(१) नैसर्गिक - जिस वैराग्य में गुरु दर्शन, साधु-संगति, पठन-पाठन की आवश्यकता नहीं रहती हो, और जो जन्म-जन्मान्तरों के शुभ संस्कारों द्वारा स्वतः उत्पन्न होता है, वह नैसर्गिक वैराग्य कहलाता है ।
(२) आधिगामिक - जिस वैराग्य में बाह्य निमित्त की अपेक्षा हो, संत-संगति, पठन-पाठन का सहयोग अपेक्षित हो वह आधिगामिक वैराग्य कहलाता है ।
वैराग्योत्पत्ति के और भी अनेक कारणों का उल्लेख मिलता है किन्तु इनका विवरण यहाँ देना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है ।
वैराग्योत्पत्ति के कारणों के परिप्रेक्ष्य में यदि हम 'नजर कुमारी' के वैराग्योदय के कारण को देखते हैं तो हम पाते हैं कि उसका वैराग्य 'ज्ञानगर्भित वैराग्य' है । कारण कि नजर को जो वैराग्यभाव उत्पन्न हो रहे हैं, वे ज्ञान के आधार पर हो रहे हैं। माता की प्रतिज्ञा का अभी नजर को अहसास भी नहीं है । अपने ज्ञान चक्षु से अनुभव कर नजर अपने कदम आगे बढ़ा रही है ।
इधर परिवार में मामा कन्हैयालालजी एवं मौसी बग्गा के विवाह की तैयारियाँ चल रही थी । उदयपुर के पास गुडली नामक एक छोटा-सा गाँव । गुडली गाँव में सेठ अमरचन्दजी बागरेचा अपने परिवार के साथ रहते थे । उनके चार पुत्र मगनलालजी, छगनलालजी, कन्हैयालालजी (जो बाद में आचार्यश्री घासीलालजी म. सा. के शिष्य रत्न हुए) तथा खूबीलालजी और एक पुत्री चौथबाई थी । कन्हैयालालजी का विवाह सेठ अमरचन्दजी बागरेचा की इसी सुपुत्री चौथबाई के साथ समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ ।
मामी को अक्षर ज्ञान कराना - चौथबाई अपने माता-पिता की इकलौती पुत्री एवं चार भाइयों की एकमात्र बहन थी । वह रूपवती एवं गुणवती तो थी ही, विनय विवेक से भी सम्पन्न थी, साथ ही धार्मिक संस्कार भी उसमें कूट-कूट के भरे थे। जब वह दुल्हन बनकर ससुराल में आई तब वह बहुत ही छोटी आयु की थी। उस समय उसकी आयु केवल नौ वर्ष की थी। उन दिनों बाल-विवाह का प्रचलन था । सास नहीं थी । ननद सोहनबाई का वह सास के समान ही आदर करती थी, उनकी आज्ञानुसार कार्य करना, आज्ञा मानना वह अपना धर्म समझती थी । बालिका नजर को अपनी ननद के समान मानती थी । नजर भी अपनी प्रिय मामीजी के साथ अत्यधिक घुल-मिल गई थी । दोनों में परस्पर बहुत अधिक स्नेह था ।
कुमारी नजर की बुद्धि कुशाग्र थी । विद्यालय में जो कुछ पढ़ाया जाता, उसे वह बहुत जल्दी आत्मसात कर लेती थी। एक-दो वर्ष की अल्पावधि में ही कुमारी नजर ने अच्छी प्रकार से पुस्तक पढ़ना सीख लिया ।
मामी पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी । उन दिनों बालिकाओं को पढ़ाना-लिखाना आज की भाँति कोई पसन्द नहीं करता था। फिर गाँव में तो यह स्थिति और भी खराब थी । गाँव में कन्याओं को प्रायः पढ़ाया ही नहीं जाता था । चौथबाई की रुचि अक्षर ज्ञान के साथ ही पढ़ने-लिखने के प्रति अधिक थी । किन्तु किससे पढ़े, कैसे पढ़े ? और फिर ससुराल में पढ़ना तो और भी कठिन कार्य था । अथवा यह कहा जाय कि असम्भव था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
अपनी मामी की रुचि और जिज्ञासा का अहसास कुमारी नजर को हो गया और वह अपनी मामी को अक्षर लिख-लिखकर देने लगी और कभी-कभी सिखाने भी लगी । कुमारी नजर के श्रम और
द्वितीय खण्ड : जीवन, दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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