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था। श्री जिनप्रभसुरिजी एक सर्वतोमुखी प्रतिभा- सं. १६३६ में तपागच्छ नायक श्री हीर विजय सम्पन्न बहुत बड़े प्रभावक और साहित्यकार थे। सुरि से सम्राट अकबर को उपदेश मिला । अकबर सम्राट द्वारा उपाश्रय, मंदिर का निर्माण हुआ, ने दीन-ए-इलाही धर्म स्थापित किया जिसमें हीर शत्रुञ्जय यात्रा, फरमान पत्रादि से जीवदया के विजय सूरि और भानुचन्द्र गणि को सदस्य बनाया कार्य हुए। इनके सम्बन्ध में महोपाध्याय विनय- था । यहाँ विविध धर्म वालों के साथ धार्मिक सागर जी कृत "शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ विचारगोष्ठी होती थी
मसून्दर जी के और उनका साहित्य" देखना चाहिए।
ग्रन्थ संग्रह को सम्राट ने सूरिजी को भेंट किया।
उनके निस्पृह रहने से आगरा में ज्ञान भन्डार स्थामुगल सम्राट अकबर
पित किया गया । आचार्यश्री के उपदेश से सम्राट मुगलवंश का सम्राट अकबर एक महान ने अनेक सर्वजन हितैषी कार्य जैसे गोहत्या बन्दी, दयालु शासक था। उसके दरबार में प्रारम्भ से ही जजिया टैक्स हटाना, तीर्थों के फरमान व अमारि धर्म समन्वय और सहिष्णुतापूर्वक शोध को भावना फरमान आदि जारी किये । होने से विविध धर्मानुयायी विद्वानों का जमघट रहता था। नागपुरीय तपागच्छ (पायचन्द गच्छ)
श्री हीर विजय सूरि जी के गुजरात पधारने पर के वाचक पद्मसुन्दर शाही दरबार में चिरकाल रहे
सं. १६४५ में उनकी आज्ञा से सम्राट के कृपा पात्र थे । ये बड़े विद्वान थे और इनके द्वारा रचित
शान्ति चन्द्र उपाध्याय रहे । सम्राट उनके पास रस संस्कृत व भाषा के अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं।
कोश प्रशस्ति प्रतिदिन श्रवण करता, वे शतावधानी बीकानेर की अनुप संस्कृत लायब्ररी में इनकी रच
थे, सम्राट व अनेक नृपतियों का सद्भाव प्राप्त नाओं में अकबरशाही शृंगार दर्पण उपलब्ध हुआ
किया था। उनके जाने के बाद भानुचन्द्र गणि और जो प्रसिद्ध है । इन्होंने शाही सभा में वाराणसी के उनके शिष्य सिद्धिचन्द्र गुरु शिष्य अकबर के पास विद्वान को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। इनके
रहे । भानुचन्द्र जी से सम्राट प्रत्येक रविवार को ज्ञान भण्डार के महत्वपूर्ण ग्रन्थ सम्राट के पास
सूर्य सहस्र नाम संस्कृत में सुनता था। सिद्धिचन्द्र - संरक्षित थे।
के शतावधान देखने से प्रभावित होकर सम्राट ने 70 उन्हें 'खुशफहम' का खिताब दिया था। इन्होंने
कादम्बरी टीका आदि अनेक ग्रन्थों का निर्माण सं. १६२५ में खरतरगच्छ के विद्वान वाचक दयाकलश जी के प्रशिष्य वाचकः साधुकीति जी
किया था। वदाउनी २, ३३२ में लिखता है कि आगरा पधारे और षट्पर्वी पौषध के सम्बन्ध में सम्राट ब्राह्मणों की भांति पूर्व दिशा की ओर मुह
0 शाही दरबार में तपागच्छीय बुद्धिसागरजो के साथ करके खड़ा होता और आराधना करता था एवं शास्त्रार्थ हुआ। उसमें अनिरुद्ध, महादेव मिश्र सूर्य सहस्र नामों का भी संस्कृत में उच्चारण करता MOD आदि सहस्रों विद्वानों की उपस्थिति में साधुकीति था। जो ने विजय प्राप्त की। इसका विशद् वर्णन कवि सं. १६४८ में खरतरगच्छ नायक श्री जिनचन्द्र कनमसोमकृत जइत पद वेलि में है जो हमारे ऐति- सूरिजी को सम्राट ने लाहौर बुलाया और उनसे हासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है। उसमें प्रतिदिन ड्योढी महल में धर्मगोष्ठी किया करता ) 'साधुकीर्ति संस्कृत भाखइ, बुद्धिसागर स्यु-स्युं था । सूरिजी के साथ ३१ साधु थे जिनमें ७ तो दाखइ तथा साधुकीति संस्कृत बोलइ शब्दों से पहले ही वा० महिमराज (जिनसिंह सूरि) के साथ सम्राट का संस्कृत प्रेम स्पष्ट है।
लाहौर आ गये थे। इनमें सूरिजी के प्रशिष्य समय
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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