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जो विवेचन किया है, वह सर्वथा मौलिक है, अन्यत्र योगशतक :* प्राप्त नहीं होता।
भारत में शतपद्यात्मक कलेवरमय रचनाएँ । ___इसी प्रकार योगबिन्दु में पूर्वसेवा आदि प्रकरण शतकों के नाम से होती रही हैं। जिनभद्रगणि क्षमा | हैं, जो योग के क्षेत्र में नवीनता जोड़ते हैं। श्रमण कृत ध्यानशतक तथा आ० पूज्यपाद रचित एक एक और बड़े महत्व की बात है, जिसका उल्लेख समाधिशतक ऐसी ही रचनाएँ हैं। आगे भी यह
परिहार्य है। आ० हरिभद्र ने योगबिन्द्र में क्रम गतिशील रहा, जिसमें आ० हरिभद्र का योगगोपेन्द्र तथा कालातीत नामक योगाचार्यों का शतक आता है। इसमें एक सौ एक उल्लेख किया है, जिनकी सूचना अन्यत्र कहीं नहीं आर्या छन्द में हैं, जो प्राकृत में गाथा के नाम से
मिलती। उन्होंने समाधिराज' तक की चर्चा की प्रसिद्ध है। ( है, जो योग पर एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसे उत्तम ग्रन्थकार ने योगशतक में मंगलाचरण के (EOHI समाधि के अर्थ में समझने की भूल होती रही। पश्चात योग की परिभाषा तथा उसके भेद बतलाते |
यह संस्कृत प्राकृत के मिले-जुले रूप में रचित ग्रन्थ हए लिखा हैहैं, जिनके चीनी भाषा भाषा में भी अनुवाद
निच्छयओ इह जोगो सन्नाणाईण तिण्ह संबंधो। कार हुए। आ० हरिभद्र का दृष्टिकोण बड़ा अनैकान्तिक,
मोक्खेण जोयणाओ निद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं ॥२॥ उदार, समन्वयवादी और सर्वथा गुणनिष्ठापरक निश्चयदृष्टि से सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन तथा र था। यही कारण है, वे निःसंकोच कह सके- सम्यक्चारित्र--इन तीनों का आत्मा के साथ संबंध
होना योग है । वह आत्मा का मोक्ष के साथ योजन पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमद वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।।
या योग करता है, इस कारण योगवेत्ताओं ने उसे
- योग की संज्ञा दी है। वह निश्चय-योग है। अब -लोकतत्व निर्णय ३८
तक पातंजल योग स्वीकृत चित्तवृत्ति-निरोध तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं योगबिन्दु में इस जैन-दर्शन स्वीकृत मनोवाक्काय-कर्म के अर्थ में संप्रआशय के और भी प्रसंग आये हैं, जो आ० हरिभद्र युक्त योग शब्द का यह तीसरा अर्थ आ० हरिभद्र ने की असंकीर्ण चिन्तनधारा के द्योतक हैं।
उद्घाटित किया, जिसका युज्! योजने धातु के ___ योगशतक एवं योगविंशिका आ० हरिभद्र की 'जोड़ना' अर्थ से सीधा सम्बन्ध है। प्राकृत-रचनाएँ हैं, जिनमें व्यापक चिन्तनधारा के
ग्रन्थकार ने योगविंशिका की पहली गाथा में परिपार्श्व में जैनसिद्धान्तों के केन्द्र से योग का योग की इसी रूप में परिभाषा की है। लिखा हैनिखार हुआ है । ग्रन्थकार ने जैन तत्त्वदर्शन और
___ मोक्खेण (मुक्खेण) जोयणाओ जोगो तद्गभित साधनामुलक आचारविधा को योग की
सव्वो वि धम्मवावारो। नई शैली में अपनी इन कृतियों में उद्भासित किया
- परिसुद्धो विन्ने ओ ठाणाइगओ विसेसेण ।।। है, जिससे जैन-दर्शन को गरिमा का प्राशस्त्य बड़ा
जो आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, वह सभी
१. योगबिन्दु १००। ३. योगबिन्दु ४५६ । ५. योगबिन्दु ५२५ ।
२. योगबिन्दु ३०० । ४. शास्त्रवार्तासमुच्चय २०८, २०६, २३७ ।
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ( साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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