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सरलता की निशानी
-श्री कंवरचन्दजी जैन, मण्डी गीदड़बाहा कुसुम है नाम श्रमणी का, कसुम-सी मुख में वाणी है,
दया की सत्य-समता की सरलता की निशानी है। हुए बावन वर्ष इनको किये स्वीकार संयम को,
जयन्ती स्वर्ण दीक्षा की सभी ने मिल मनानी है। लगाते लोग जयकारे गगन में गंजते नारे,
नहीं होगा पुरुष कोई, खुशी जिसने न मानी है। करो इनके सदा दर्शन सुनो इनके सदा भाषण,
सफल जो आपने अपनी बनानी जिन्दगानी है। कथा कैसी सनाते हैं, सभी श्रोता बताते हैं,
श्री महावीर-गौतम की मधुर जैसी कहानी है । करीतियाँ दूर की जितनी गिनाएँ किस तरह इतनी,
सुधारक आप-सी श्रमणी नजर मुश्किल से आनी है । 'कंवरचन्द बोथरा' कहता तो गीदड़वाहा में रहता, सती की गहन गुण-गाथा सरल सबने सुनानी है। .
-पदमचन्द जैन, (दिल्ली देख न पाया 'दीप' कभी भी निज आभा को
जान न पाया 'रत्न' मूल्य मानव ने आँका जो। सूर्य चन्द्र आलोक-सुधा वर्षा बरसाते नदी नीर-निज, तरु-पुष्प फल देते जाते।
सन्त-सुकोमल-समता-ममता-करुणा दानी
त्याग-तितिक्षा-क्षमा-तपस्या, महा उपकारी । धन्य सती श्री 'कुसुम' शिरोमणि जीवन इनका धन्य परम प्रतापी गुरु सेवा से, पाया संयम, धन्य ।
ऐसा सुन्दर विनयी विवेकी है जिनका आचार
कोटि-कोटि वन्दन चरणों में, ही मेरा स्वीकार । मैं क्या ? मेरी वाणी क्या ? केवल कुछ गुजन नहीं शब्द की शक्ति मुझमें कैसे हो गुण गुथन ।
शब्द योजना जो भी है भक्ति के ही कारण
अल्प-बुद्धि हूँ मैं क्या जानूं, कैसे हो गुण वर्णन । दीप जले, आलोकित कर दे, महिमण्डल को वही सन्त ! पिये गरल, बाँटे अमृत जन-जन को।
'कुसुम' सुगन्ध सुकोमल उपवन की शोभा बढ़े सती-संयम सहिष्णुता, प्रेम, ज्ञान-आभा ! '
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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