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सरलता की मूर्ति
- डॉ० गुलाबचन्द जैन, जयपुर
हृदय चेतना-युक्त सुकोमल कुसुम सरीखा है ऐसा
क्रोध-लोभ-मद-मोह रहित मक्खन मानो है जैसा बालब्रह्मचारिणी गृहत्यागी स्नेहमयी ये माता है सभी शिष्य-शिष्याओं के प्रति सदा एक-सा नाता है
स्त्री हो या पुरुष सभी को प्रेम एक-सा देती हैं
धनी-निर्धन-युवा-वृद्ध में समता रस भर देती हैं राग-द्वेष से दूर साम्य-भावों में नित ये बहते हैं तप संयम से ओत-प्रोत प्रतिपल शान्त ये रहते हैं
पुण्य-पाप का मर्म सभी जीवों को ये समझाते हैं
बता मोक्ष का मार्ग सभी भवी जन को यह जगाते है विकथा कभी न मुख पर आती धर्ममयी चर्चा करते महासती श्री कुसुमवती जी क्षण भर में दुष्कृत हरते
मैंने इनको सदा मनन-चिन्तन में डूबा देखा
रहे तपस्या लीन प्रमत्तपन दूर हटाते ही देखा जब भी मैं आकर नवता निज शीश झुकाता चरणों में बोले हितकर वचन सुकोमल मंगलकारी वरणों में
पुष्कर मुनि की सभी योग्य शिष्याओं में यह योग्यतमा
अभिनन्दन मैं करू हृदय से, अपने सब छलछिद्र गमा है मेरा विश्वास कामना भी है मेरी रात और दिन पाकर के निःश्रेयस सुखमय हो जायेंगे एक दिन
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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