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A अपना विकास कर लेता है और फूल तथा फल बसन्त में सभी वृक्ष, लता, पौधे खिल जाते हैं,
देने में समर्थ हो जाता है । इस अवस्था में विकसित होकर झमने लगते हैं और All स्वाभाविक ही रक्त में उष्णता, स्फूर्ति और व फलों से अपना सौन्दर्य प्रकट करते हैं, उसी E५ प्रवाहशीलता अधिक होती है, इसलिए मनुष्य का प्रकार यौवन भी उत्साह व स्फूर्ति की लहरों से
शरीर कष्ट सहने में अधिक सक्षम रहता है, तरंगित होकर कुछ न कुछ करने को ललकता है, काम करने में फुर्तीला और समर्थ रहता है। निर्माण करने को आतुर होता है। यदि जवानी में बचपन में जो बल-शक्ति घुटनों में थी, वह अब किसी को निर्माण करने का अवसर नहीं मिलता हृदय में संचारित हो जाती है, इसलिए युवक में है, सर्जन करने की सुविधा व मार्गदर्शन नहीं
साहस और शक्ति का प्रवाह बढ़ने लगता है। मिलता है, तो उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती ( बाल्यकाल में यदि शिशु अच्छे संस्कार व अच्छी हैं, कुण्ठा व आन्तरिक तनाव से वह भीतर ही
आदतें सीख लेता है, खान-पान आदि के संयम के भीतर घुटन महसूस करता है। साथ रहता है तो युवा अवस्था में उसमें अद्भुत
मानव-जीवन भी तीन अवस्थाओं में गुजरता शक्ति व स्फूर्ति प्रकट होती है, उसके शरीर में संचित वीर्य, ओज, तेज बनकर उसके तेजस्वी,
है, बचपन अधूरा होता है, बुढ़ापा अक्षम होता है, प्रभावशाली और सुदर्शन व्यक्तित्व का निर्माण
विकास की अन्तिम सीढ़ी पर खड़ा होता है । करते हैं, इसलिए माता-पिता, जो अपनी सन्तान
यौवन ही वह समय है, जो जीवन को समूचेपन से को तेजस्वी बनाना चाहते हैं, आकर्षक व्यक्तित्व
भरता है, समग्रता देता है, परिपूर्णता देता है। वाला बनाना चाहते हैं, उन्हें बचपन से ही उनके
यौवन सोचने की सामर्थ्य भी देता है और करने संस्कारों की तरफ ध्यान देना चाहिए।
की क्षमता भी, इसलिए 'यौवन' मनुष्य की अन्तर्
बाह्य शक्तियों के पूर्ण विकास का समय है। इस __ संसार में जितने भी तेजस्वी और प्रभावशाली
अवस्था में मनुष्य अपने हिताहित का स्वयं निर्णय व्यक्तित्व हुए हैं, उनके जीवन-निर्माण में जागरूक
कर सकता है और स्वयं ही उसको कार्यरूप दे माता का हाथ उसी प्रकार रहा है, जैसे अच्छे
सकता है । बचपन और बुढ़ापा-परापेक्ष हैं, परावफलदार वृक्षों के निर्माण में कुशल माली की देख
लम्बी हैं। यौवन स्व-सापेक्ष है, स्वावलम्बी है। रेख रहती है।
भगवान महावीर ने इसे जीवन का मध्यकाल . जिन बच्चों की बचपन में देखरेख नहीं रहती बताया है, जागरणकाल बताया है और निर्माणजिन्हें अच्छे संस्कार नहीं मिलते, योग्य शिक्षण काल भी। व संरक्षण नहीं मिलता, वे जवानी आने से पहले
मज्झिमेण वयसा एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिता (Eph) ही मुर्झ जाते हैं, दीपक प्रज्वलित होने से पहले
ही बुझ जाते हैं । वृक्ष, फलदार बनने से पहले ही यौवन वय में कुछ लोग जाग जाते हैं, स्वयं की सूखने लग जाता है, अतः कहा जा सकता है, यौवन पहचान कर लेते हैं, अपने व्यक्तित्व की असीम उन्हीं का चमत्कारी और प्रभावशाली होता है, क्षमताओं का अनुमान कर लेते हैं और पुरुषार्थ की जिनका बचपन संस्कारित रहता है।
अनन्त-अनन्त शक्ति को उस मार्ग पर लगा देते हैं, ___ बचपन अर्जन का समय है तो यौवन-सर्जन का
जिस पथ पर बढ़ना चाहते हैं, उस पथ को अपनी
सफलताओं की वन्दनवार से सजा देते हैं। समय है । तरुण अवस्था नव-सर्जन की वेला है। बचपन शिशिर ऋतु है, तो जवानी बसन्त ऋतु है। जो युवक होकर भी, यौवन में अपनी क्षमता
MAHAVEHOROSS
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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