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ग्रहण करने को है । तीजकुवर का हाथ जल जाने अतः साध्वियों को प्रथम आप व्याकरण का से तीजकुवर और उनका पुत्र धन्नालाल ये दोनों अध्ययन करावें और साथ ही साहित्य का भी
उपचार कराने हेतु हिम्मतनगर (गुजरात) में गये अध्ययन करावें जिससे कि इनका भाषा पर अधि- हुए हैं । जहाँ तीजकुंवर के भाई एक कुशल सर्जन हैं। कार होगा। जितना भी हमारा आगम साहित्य है।
वार्तालाप का क्रम आगे चला। अद्धय गरुदेव उसकी भाषा अर्धमागधी है और उस पर जो व्याख्या ने महासती जी को पूछा कि इन दोनों लघु साध्वियों साहित्य है उसमें नियुक्ति, चूणि, भाष्य आदि की का अध्ययन क्या चल रहा है ? महासती जी ने भाषा प्राकृत है। तो टीका साहित्य सम्पूर्ण संस्कृत बताया कि इन दोनों ने उत्तराध्ययन, दशवकालिक, में है। इसलिए जैन श्रमण और श्रमणियों को नन्दी और विपाक सूत्र आदि कण्ठस्थ किये हैं। प्राकृत और संस्कृत का ज्ञान करना आवश्यक है। । और ७०-८० थोकड़े भी स्मरण किये हैं। मैं इस संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएँ प्रशस्त भाषाएँ समय इन्हें आगमों की वाचना दे रही हूँ। हैं। इन भाषाओं के अध्ययन करने से गम्भीर
श्रद्धय सद्गुरुवर्य ने हार्दिक सन्तोष व्यक्त किया पाण्डित्य प्राप्त किया जा सकता है। आगमों में और कहा कि सर्वप्रथम सन्त और सतियों को रही हुई गुरु ग्रन्थियों को इन्हीं से खोला जा सकता आगम का परिज्ञान आवश्यक है । आगमों के अध्य- है। मुझे यह लिखते हुए अपार आल्हाद है कि मेरे यन से संयमसाधना में स्थैर्य आता है। विचारों सुझाव को महासती श्री सोहन कुंवरजी महाराज की विशुद्धि होती है । भौतिक पदार्थों की चकाचौंध ने शीघ्र ही मूर्त रूप दिया । और दोनों ही साध्वियों उन्हें फिर आकर्षित नहीं कर पाती। आगमों के को सुयोग्य पण्डित के द्वारा संस्कृत, व्याकरण और अध्ययन के साथ व्याकरण, न्याय, दर्शन का अध्य- साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ करवाया । और यन भी बहुत ही अपेक्षित है, जिससे कि साधक प्रतिभा की तेजस्विता से दोनों ही साध्वियों ने गहन परतीर्थियों से साधिकार विचार-चर्चा कर सकता अध्ययन किया और किंग्स कालेज बनारस की उच्च है। इसीलिए मैंने पुष्कर को संस्कृत साहित्य का तम परीक्षाएँ समुत्तीर्ण की साथ ही हिन्दी साहित्य अध्ययन करवाया है। उसका अध्ययन चल रहा सम्मेलन प्रयाग और श्री तिलोक रत्न धार्मिक है। इसलिए वह जैसा मार्गदर्शन दे वैसा इन प्रति- परीक्षाबोर्ड पाथर्डी की उच्चतम परीक्षाएँ भी दी। भाओं को विकसित करो।
अनेक बार महासती कुसुमवतीजी ने अनेक गुरुदेव श्री के आदेश से मैंने साध्वीरत्न श्री स्थलों पर दर्शन किये । और सन् १९७३ में अजमेर सोहन कुवरजी महाराज से कहा कि व्याकरण में, सन् १९८३ में मदनगंज-किशनगढ़ में तथा १९८६ भाषा-विशुद्धि का महत्वपूर्ण साधन है। व्याकरण में पाली वर्षावास साथ ही किये। मेरे से उन्होंने में धातु और प्रत्यय के संश्लेषण और विश्लेषण के आगम की टीकाओं का अध्ययन भी किया। उनकी द्वारा भाषा के आन्तरिक गठन पर चिन्तन होता वाणी में सहज माधुर्य है; ओज है जिस कारण उनके
र लक्षणों के द्वारा सुव्यवस्थित वर्णन प्रवचन जन-जन के मन को मुग्ध करते हैं। महाकरना ही व्याकरण का उद्देश्य है। शब्दों की सती चारित्रप्रभाजी, महासती दिव्यप्रभाजी आदि उत्पत्ति, उनके निर्माण की प्रक्रिया का रहस्य भी अनेक विदुषी साध्वियाँ आपकी शिष्याएँ हैं । जिनके व्याकरण के द्वारा ही ज्ञात होता है। व्याकरण प्रवचनों में प्रवाह है। जिनशासन की प्रभावना भाषा का अनुशासन करता है । शब्दों के जो विविध करने की शक्ति है। मेरा हार्दिक आशीर्वाद है रूप हैं उसमें जो मूल संज्ञा और धातु हैं उसके स्वरूप कि महासती कुसुमवतीजी ज्ञान, दर्शन, चारित्र में का निश्चय और प्रत्यय लगाकर विविध शब्दों के अधिकाधिक प्रगति करें। सदा स्वस्थ रहकर जिननिर्माण की प्रक्रिया व्याकरण से ही जानी जाती है। शासन की प्रभावना में चार-चांद लगाती रहें। ०
प्रथम खण्ड: श्रद्धार्चना
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0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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